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________________ 8.5.2] महाकाल सिंह विरहन पज्जुण्णचरित [135 कहइ सव्वग्गु हरिवंसे तित्यंकरो णेमिणाहोत्ति जो सव-सुक्खंकरो। तस्स तित्थम्मे वारमइ हरिणंदणो णाम पज्जुण्णु मयणोत्ति अरिमद्दणो। सो वि वेयढ़ जिण-भवणे आवेसए विविह-विलाण-एयाण पहु होसए। ताउ सव्वाउ तहि समई जा ढुक्किया मज्झु जक्खस्स पासम्मे परिमुक्किय। जिणइँ मइँ समरे सो चेव महुमह-सुओ 'पवण असणस्स रूवेण इह अच्छिओ। गयउ चिरकालु सियवंतु तउ पेच्छिओ एम मुणिउ सिउहु देव णिरु दढ-भुओ। "लेहि विज्जाउ अवरे ज मणिसेहरो तहय जुह तणउहँ चेव वर किंकरो। मउडु-विज्जाउ गहिऊण जा णिग्गओ दिह खयरेहिं संमुहुतुं णं दिग्गउ। धत्ता-- ता चित्त चमक्किय 'रायसुय पुणु कुमारु णिउ तेत्तहिं । जहिं वसइ णिसायरु कालसमु काल-गुहाणणु जेत्तहिं ।। 128 ।। (5) ताहिमि दूरे हाएवि पवुत्तर इह पइसई जो रविण गित्त। सो मणे इंछिम संपय पावइ तं णिसुणेवि मयणु ण चिरावइ । 10 होगा?" तब भगवान् ने कहा—“सर्वश्रेष्ठ हरिवंश में सभी के लिए सुखकारी तीर्थंकर नेमिनाथ उत्पन्न होंगे। उनके तीर्थ में द्वारावतीपुरी में हरि का, शत्रुओं का मर्दन करने वाला प्रद्युम्न नामका कामदेव पुत्र उत्पन्न होगा जो विजयाध के जिन-भवन में जाकर प्रवेश करेगा और वही इन विविध विद्याओं का प्रभु होगा।" उसी समय से ये सभी विद्याएँ यहाँ आ घुसी और मुझ यक्ष के पास में रह रही हैं।" मधुमथन का पुत्र मुझे समर में जीतेगा, इसी आशा से तभी से मैं पवनाशन यक्ष सर्प के रूप में यहाँ स्थित हूँ। शोभा सम्पन्न आपकी राह देखते हुए मुझे चिरकाल बीत गया। ऐसा समझिए। दृढ़ भुजा वाले कल्याणकारी हे देव, आप यहाँ आ पहुँचे हैं। अत: अब इन विद्याओं को ले लीजिए और जो मणिशेखर है उसे भी ले लीजिए। उस यक्ष के कथनानुसार ही प्रद्युम्न ने उन सभी को स्वीकार कर लिया। मणि-मुकुट एवं विद्याओं को ग्रहण करके जब वह निकला और उन विद्याधर कुमारों के सम्मुख पहुँचा, तब ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों दिग्गज ही आ गया हो। घत्ता- उसे देखकर उन राजकुमारों का चित्त चमत्कृत हो उठा। पुनः वे विद्याधर कुमार प्रद्युम्न को उस कालगुफा के मुख पर ले गये जहाँ यमराज के समान दुष्ट निशाचर रहता था।। 128।। (5) कालमुखी गुफा में निशाचर द्वारा कुमार को छत्र, चमर, वसुनन्दक-खड्ग तथा नाग-गुफा के नागदेव ने ___दो विद्याएँ एवं विभिन्न वस्तुएँ भेंट स्वरूप प्रदान की दूर खड़े होकर उससे तब कहा-"जो इस गुफा में वेग पूर्वक (दौड़कर) प्रवेश करेगा वह मनवांछित सम्पदा को प्राप्त करेगा।" यह सुनकर मदन ने देर नहीं की। वह शीघ्र ही उन सब भाइयों को बीच में ही छोड़ कर (4) 1-2. अ. प्रति में ये दो चरण नहीं हैं। 3.4 अ. प्रति में ये धरण नहीं है। 5.4. ग। (47 (2विद्या । (3) कालगुफा सुखंयत्त।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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