________________
134]
महाका सिंह विरइज पज्जुण्णचरित
[8.3.!
तहो अलयाउरि सुह-अछंतहो इट्ठ कामभोय, भुंजंतहो। एक्कहिं दिणि वज्जिय संधाय अंदरु फुटटर तर-णिपायइ । तक्खणे कणय णियउ णियच्छिय आलोयणिय-विज्ज आउच्छिय । ताएँ पर्यपिउ णमि-जिणणाहहो णाणुप्पण्णउँ केवलवाहहो। तहिं सुर-चणिकाय संपाइय दुंदुहि रसिय अमरकर-वाइय । तं णिसुणेवि कंचणु आणंदिउ जाएवि समवसरणे जिणु वंदिउ ! माणथंभ पेछेवि गयमाणउँ हुवउ झत्ति परमत्थ वियाणउँ ।
णिसुणेवि तच्च तेण तउ लइयउ जाउ विमुक्क-संगु पव्वइयउ। धत्ता- ता विज्जहिमि पउत्तु भणु अम्हहं पहु किंकरहु"।
तुहुं भव-रज्जे वइछु कहि एमहिं कहु उवयरहु ।। 127 ।।
10
ताम कणएण जिणणाहु आपुच्छिऊ
कवणु पहु देव आयहमि अणुकुच्छउ ।
राजा हिरण्य की दीक्षा एवं उसके लिए सिद्ध विद्याओं के आश्रय की चिन्ता इष्ट काम-भोगादि भोगता हुआ वह हिरण्य अलकापुरी में सुख-सन्तोष पूर्वक रह रहा था। एक दिन सामूहिक बाजे बजने लगे और तूरों के निनाद से अम्बर (आकाश) फूटने लगा। उसी समय कनक (हिरण्य) ने निकट से ही उठने वाली आलोचनी नामकी विद्या को देखा। उस विद्या ने उसे बताया कि नमि जिन नाथ को केवल स्वभावधारी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अत: वहाँ चारों निकाय के देव आ रहे हैं। देवों के हाथों द्वारा बजाये हुए दुन्दुभि बाजे बज रहे हैं। उनको सुनकर कंचन (हिरण्य) आनन्दित हुआ। फिर उसने समवशरण में जाकर जिनेन्द्र की वन्दना की। मानस्तम्भ के दर्शन से उसका मान चला गया। झट से वह परमार्थ का ज्ञाता हो गया। उस कंचन ने तर्क सुनकर तप ग्रहण किया और परिग्रह छोड़ कर प्रवजित हो गया। घत्ता- तब (राजा हिरण्य को प्रव्रजित देखकर उससे) उन विद्याओं ने कहा—"हे प्रभु, अब कहिए कि हम
आपकी दासियाँ क्या करें? आप तो भव-राज्य के ऊपर बैठ गये (अर्थात् मोक्ष मार्ग की साधना करने लगे) अब कहिये कि यहाँ हमारा उद्धार कैसे होगा?" || 127 ।।
विजयार्द्ध के दुर्गम जिनभवन में प्रवेश करने पर पवनाशन यक्ष द्वारा
कुमार प्रद्युम्न के लिए अमूल्य विद्याएँ एवं मणिशेखर की भेंट तब कनक (हिरण्य) ने जिननाथ से पूछा—“हे देव, आगे कौन सा समर्थ पुण्य-पुरुष इन विद्याओं का प्रभु
(3) Iब 'क्क।
(3) (1) मम कि कर्मः 14 (1) पुण्णवंत.।