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8.2.11]
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महाक सिंह विरइ पजुण्णचरिउ
इउ चितिवि कज्जु वियप्पियउ अप्पू' गउ सावइ संगणे तहिं जा एवि मंतु तेण जवि मय-माण मोह भय वज्जियहो अणु-दिणु वण झाले अहिट्ठियहो एम विज्जउ नगसिद्धय पुणु अलयार संपतु किह ता तारइँ तासु(2) महाहियहो
सत्तं विरज्जु पडियिज
पत्ता- विज्जावल गव्विउ
(2)
लहु भायहो रज्जु समप्पियउ । जिण - सासणेण णं वण गहणे । भुत्तोयणु सउ वीरइ घविउ । मच्छर- मयणहि ण परज्जियहो । चम्मलि-बिसेस परिट्टिमहो । ताई शिचिप । महि साहिवि भरहु 'णरेंद जिह | पणवपिणु जेठो भाइयहो । तेण वि सन्भावइँ इच्छिउ ।
रइ-पंकय
फुल्लधुउ ।
कणय मय अवयरिमउ कणउ वि अवरु सु अंधउ ।। 126 ।।
(2)
36 वर्षों में समस्त विद्याएँ प्राप्त कर कनकपुत्र - हिरण्य मदान्ध हो गया
(2) 1. व. अष्णु ण। 2. अ धायवि । 3. ब. जिदि । 4. ब. गारविउ ।
ऐसा चिन्तवन कर उसने (हिरण्य ने) कार्य का विकल्प किया ( मन्त्र साधने का विचार किया), और अपने लघु भाई तार को राज्य समर्पित कर दिया। वह स्वयं ही जिनशासन के अनुसार श्रावक व्रत धारण कर गहन-वन में चला गया। वहाँ वन में जाकर उस वीर हिरण्य ने साहसपूर्वक मन्त्र जपा | स्वयं कांजी का भात बना खा कर कालक्षेपण किया। वह मद, मान, मोह एवं भय से रहित और मत्सर एवं मदन से पराजित नहीं हुआ। वन में प्रतिदिन ध्यान में अधिष्ठित उस हिरण्य के चर्म तथा अस्थि मात्र शेष रह गये । इस प्रकार जगत् में जितनी सुप्रसिद्ध विद्याएँ थीं वे सब उसे 36 वर्ष में सिद्ध हुईं। फिर वह हिरण्य अलकापुरी में किस प्रकार पहुँचा जिस प्रकार कि भरत नरेन्द्र (चक्री ) मही साधकर ( अयोध्यापुरी में ) पहुँचे थे ( अथवा मही साधक भरत जिस प्रकार जिनेन्द्र के पास पहुँचा था ) ।
तब छोटा भाई तार महाहृदय वाले उस बड़े भाई को प्रणाम कर उससे मिला और उससे उस (हिरण्य) को राज्यपद पर पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। बड़े ने भी छोटे को युवराज पद पर प्रतिष्ठित किया, जिसे उसने सद्भाव पूर्वक स्वीकार किया ।
धत्ता- विद्याबल से गर्वित, रतिरूपी कमल पुष्प में अन्धे हुए भ्रमर के समान उस कनक ( हिरण्य) में मदन का अवतार हो गया और स्वर्णादि समृद्धि बढ़ने के कारण वह हिरण्य और भी मदान्ध हो गया ।। 126 ।।
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(2) (1) जिनशासनेन श्रावकानां संग्रहो भवति (2) लघुकाता।