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महाकह सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिउ
[8.1.1
अट्ठमी संधी
३६ मा हो । नक्खु वि पुणु अणुरायइँ।
अलयाउरि वरणयरि ण णिम्मिय सुरराय।। छ।। तहिं आसि कणयणाहु वि गरिदु अणिलाएविहे रोहिणिहिं चंदु । सुब बेवि ताम उप्पण्णसार
णामेण पसिद्ध हिरण्ण-तार। वर रज्जु करइ तहि णिवइ जाम पिहियासउ मुणि संपत्तु ताम। तहो पायमूले णिसुणेवि धम्म तउ लय णिवण णि वेवि "कम्मु । सुर करइ रज्जु पच्चक्खु णयरे तावेक्क दिवसि सउहलयउवरे। णिय कंत सहिउ वरसुह णिसण्णु ता णहु पेछइ णह जाण) छण्णु । धय-'धुव्वमाणु किंकिणि-रणंतु णं जिणहुवि देवागमणु होतु।
मणि-मउड-कड़य-कुंडलधरोवि एह सज्जई गच्छइ खयरु कोवि । पत्ता- तहिं अवसर कणएण विज्जाबलु सलहिज्जइ।
जहिं ण फुरई) तं लोए रज्जइँ कि किर किज्जइ ।। 125।।
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आठवीं सन्धि
कुमार प्रधुम्न द्वारा विद्या-लाभ का उपाय पूछे जाने पर यक्षराज द्वारा पूर्व-कथा वर्णन तब यक्ष ने भी अनुरागपूर्वक कुमार से कहा--"अलकापुरी नामकी एक नगरी है। वह इतनी श्रेष्ठ (सुन्दर) है मानों उसे सुरराज—इन्द्र ने ही बनाया था। ।। छ।। ___पहले वहाँ कनकनाथ नामका राजा राज्य करता था। उसकी चन्द्रमा के लिए रोहिणी के समान अनिला नामकी देवी रानी थी। उनके सारभूत दो पुत्र उत्पन्न हुए। जो हिरण्य और तार नाम से सुप्रसिद्ध हुए। जब वह राजा उत्तम रीति से वहाँ राज्य कर रहा था तभी वहाँ मुनिराज पिहिताश्रव आये। उनके चरणमूल में धर्मोपदेश सुनकर उस राजा ने उनके चरणों में नमस्कार कर तप ग्रहण कर लिया।
जब पुत्र उस नगरी में प्रत्यक्ष रूप से राज्य कर रहा था। तब एक दिन जब वह अपनी कान्ता के साथ अत्यन्त सुख-सन्तोषपूर्वक अपने भवन की अट्टालिका के ऊपर बैठा था तभी उसने नभोयान से छन्न (बँके) आकाश को देखा। उस पर ध्वजा उड़ रही थी, किकिणियाँ शब्द कर रही थीं। वह ऐसा प्रतीत होता था मानों जिनेन्द्र के सामने देवागमन हो रहा हो अथवा मणि-मुकुट-कटक एवं कुण्डलों का धारी कोई विद्याधर ही सजकर जा रहा हो। पत्ता- उस अवसर पर उस हिरण्यराजा ने विद्याबल की प्रशंसा करते हुए कहा—“यदि यह विद्याबल मुझे प्रकट
नहीं हुआ तो फिर लोक में राज्य कैसे किया जाये अर्थात् राज्य करने का सुख ही क्या?" || 125 ।।
(1) I. अ णिहणेवि। 2. छ। 3. ब. भु.। 4. अ. ज.।
(1) (1) विभाण । (2) सामग्री युक्तः । (3) विद्याबलं ।