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________________ 130] 10 5 10 महक सिंह विरह पज्जुण्णचरित्र धत्ता- अहमिंद-पसंसिद्ध ति जग णमंसिउ सो तेहिमि दीहर - भुयहि । दूरहो अहिदिउ सव्वहि वंदिउ एय कालसंवर सुयहिं ।। 122 ।। (17) ता पविदंसण भणिय सभायर इह वेमड्ढ - सिहर एहु जिणहरु सो विज्जाहरवइ संज्जइ ਵੜ विहिवसे' पइसेविणु पुणु तो तणिसुणेवि तेण कुमारें लहु धायवि सहसत्ति फिडेपिणु (2) ता अलिउल-तमाल - कसणंगइ गुंजारुण-दारुण-चलणयाइँ णिव्भच्छिउ कुमारु सुरसप्पइँ बेवि सरोस भिडिय तर्हि अयसर फेरवि अम्फाल किर जामहिं जे पज्जुराहो हिण- कयायर । जो पइसइ दुक्किय कलमलहरु पर ण पइट कोवि इह अज्जइ । तुम्हइ खणु वि णिहु वइसे विणु । रूविणि गब्भु भवेण कुमारें । ठिउ गोउरे - पायारे चडेण्पिणु । गुरु- फुक्कार- पमुक्कउ वंगइ | रोस - फुरंत फार-फण-वयणइँ । अहि दुव्वयहिं पुणु कंदप्पइँ । छ वरेविता ऋतु सिरोवरि । जक्खेण मणे परिभाविउ तामहिं । धत्ता - अहमिन्द्रों द्वारा प्रशंसित तथा तीनों लोकों द्वारा नमस्कृत उन जिनेन्द्र देव के लिए राजा कालसंवर के दीर्घ- भुजा वाले उन सभी पुत्रों ने दूर से ही अभिनन्दन एवं वन्दन किया ।। 122 ।। F7.16.10 (17) प्रद्युम्न का सर्पवेशधारी यक्ष से युद्ध तब पविदशन ( वज्रदंष्ट) ने प्रद्युम्न के निधन में आदर (इच्छा) करने वाले अपने सभी भाइयों से कहा"इस विजयार्ध शिखर पर दुष्कृतों तथा कलिमलों को हरने वाले इस जिनगृह में भी जो प्रवेश करेगा वह विद्याधर- पति हो जायेगा । यद्यपि इसमें आज तक कोई प्रविष्ट नहीं हुआ है, फिर भी तुम्हारे द्वारा सेवित मैं अपने भाग्य की परीक्षा करने की दृष्टि से उसमें प्रवेश करता हूँ। तब तक कुछ क्षणों के लिए तुम सब बैठो।" वज्रदंष्ट्र ये वचन सुनकर रूपिणी के गर्भ से उत्पन्न वह कुमार प्रद्युम्न शीघ्र दौड़ा और सहसा ही ( अपनी शक्ति से ) प्राकार पर चढ़कर उसे फोड़कर गोपुर में स्थित हो गया । (17) 1-2 अ नितिछामि । तभी वहाँ अलिकुल अथवा भयानक अन्धकार के समान अत्यन्त काले शरीर वाले, अपने उपांगों से डरावनी फुफकार छोड़ते हुए, गुंजा के समान लाल-लाल भयंकर चंचल नेत्र वाले, रोष से स्फुरायमान फूले फण और बदन वाले सर्प रूप देव ने उस कन्दर्प कुमार ( प्रद्युम्न ) की अधम दुष्ट वचनों द्वारा भर्त्सना की। रुष्ट होकर दोनों भिड़ गये। अवसर पाकर उसी समय कुमार ने सर्प की पूछ पकड़ कर उसे घुमाकर जब पर्वत शिखर पर फेंका तभी उस सर्पवेशधारी पक्ष ने अपने मन में सोचा --- (17) (1) वचनं । (2) विद्याधर करणे |
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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