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________________ 7.16.9] महाका सिंह विरह पञ्जुण्यरित [129 घत्ता- किं तुहि जायहि अणविक्खायहिं आयहो लीह ण पावहु । एवहिं जिम जिज्जइ एहु हणिज्जइ तं कायउ परिभावहो।। 121 ।। (16) जणणिहि वयणु सुणेवि चिंतेविणु पवि-दसणहो पमुहहिं चिंतेविणु। भणिउ कुमार अन्जु णिय-लीलइँ गिरिवेयर्ड्स जाहि वण-कील । ता पज्जुण्ण समुण्णय माणउँ भाय सयहि-पंचहिमि समाणउँ । अकुडिल-मणु कुडिलहिं संजुत्तउ ताम सिलोच्चय) - सिहरे पहुत्तउ। ण पाउ) माह-मडलं दुकउ अमराह विध्व-विमाणु पमुक्कउ। सव्व सुवण्ण-रइउ जगि सुंदरु । णं गिरिवरहो उवरे गिरि-मंदिरु । जं सुर-णरवर-फणि-गण मणहरु वरमणि कलस-विहूसिउ जिणहरु । जं ति-दुवारु ति-गोउर-जुतउ । जहिं जिणवरु धवलउ छत्तत्तउ। जो भव-सय-रय माण-विवज्जिउ गाय-सुरिंद-णरिंदहिं पुजिउ । घत्ता- तुम सब विख्यात नहीं हो सके। अत: तुम्हारे जन्म लेने से क्या लाभ? आगे भी तुम लक्ष्मी नहीं पाओगे। इसलिए अब जैसे भी इसको जीता जा सके, इसे मारा जा सके, ऐसे किसी भी उपाय का विचार करो।। 121 ।। (16) कालसंवर के 500 राजकुमार-पुत्रों के साथ कुमार प्रद्युम्न विजयार्द्ध-पर्वत पर क्रीड़ा हेतु पहुंचता है पविदशन (वज्रदन्त) प्रमुख सभी विद्याधर राजपुत्र जननी के वचन सुनकर मन में चिन्तित होकर उपाय सोचने लगे। (एक दिन अवसर पाकर) सभी कुमारों ने कुमार प्रद्युम्न से कहा..."आज अपनी लीलाओं पूर्वक हम लोग वन-क्रीड़ा के लिये विजयार्द्ध पर्वत पर जायेंगे।” (यह सुनकर) समुन्नत मान एवं अकुटिल मन वाला वह प्रद्युम्न अपने कुटिल मन वाले 500 भाइयों के साथ विजयार्द्ध पर्वत के उच्च शिखर पर पहुँचा। वह पर्वत-शिखर ऐसा प्रतीत होता था मानों वह स्वर्ग से महिमण्डल पर लटका दिया गया हो अथवा देवों द्वारा सर्वांग स्वर्णरचित जग में सुन्दर कोई दिव्य-विमान ही छोड़ा गया हो। अथवा मानों, उस पर्वत श्रेष्ठ के ऊपर मन्दराचल ही ला दिया गया हो। जहाँ सुरों, नरवरों एवं फणिगणों द्वारा सेवित मणि-कलशों द्वारा विभूषित, तीन-तीन, दो-दो दरवाजों तथा तीन गोपुरों से युक्त मनोहर जिनमन्दिर था जिसमें धवल तीन छत्रधारी जिनवर (विराजमान) थे, जो कि सैकड़ों भवरूपी रज एवं मान से रहित और जो नागेन्द्र, सुरेन्द्र एवं नरेन्द्रों द्वारा पूजित थे। (16) 1. अ वा दिउ। (16) (1) वज्जदंत । (2) विजयाई शिखरस्प चैत्याल्यं । (3)म्बत् ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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