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________________ 7.14.9] 10 5 महाकड सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिउ पत्ता - एयमि असेसइँ अइ सुविसेसइँ अवरइ पवर जि लक्खियइँ । पुहतिहि पर-मारहूँ तेष कुमार ताईं असेसइँ सिक्खियाँ ।। 119 ।। (14) अट्टम - णवम वरिस संपत्तए हउँ यि कुकइतणु मणे मण्णमि जोव्वण- सिरि छुडु-छुडु जि मयटूट्ठइ हरि करि भड' परिघरि णिरंतरु जो संवरहो वाहकट्ठिवि ठिय अवर दुट्ठे खल- खुद्ध णिवारिय दिवे-दिवे गुडि उद्धरण सहासहिं गिज्जइज्जहिं णवियइ पढिज्जह सोण घरु - पुरुवि पर सो ण रावलु वाल - भावइँ सेसि गियत्तए । मयरद्धयहो रूउ किं वण्णमि । वातु समरि भरे भिडहु पयट्ठइ । वियरइ विज्जाहर भुवणंतरु । भिडिवि रणगणे तेण विणिज्जिय । केवि धरिय केवि समरे वियारिय पुरि पइसइ वंदिण णिश्घोसहिं । जुवि ण भित्ति चित्तह ण लिहिज्जइ । खेडु - भंडबु सो ण वेलाउलु । [127 धत्ता- इसी प्रकार पृथिवी पर मनुष्यों के लिये सारभूत और भी जो अन्य अनेक अति विशिष्ट एवं श्रेष्ठ विद्याएँ कही गयी हैं उन सबको भी उस कुमार प्रद्युम्न ने सीख लिया। 119 ।। (14) कुमार काल में प्रद्युम्न का पराक्रम एवं यश आठवें एवं नौवें वर्ष की आयु होने पर नियम से बालभाव के शेष हो जाने पर कवि कहता है कि "मैं मन में अपने कुकविपने को मानता हूँ ( अर्थात् मैं कविता में अपने को असमर्थ मानता हूँ), अतः मकरध्वज के रूप का मैं क्या वर्णन करू? यौवनश्री धीरे-धीरे मानों भुजा में पदार्पण करने लगी। उनका बालपना स्मरभार में भिड़कर हटने लगा । हरि करि और भद्रजनों के परिवार सहित विद्याधर प्रद्युम्न निरन्तर अन्य - अन्य भुवनों में विचरने लगा। जो (काल) संवर को भी बाधक जहाँ कहीं भी स्थित था, प्रद्युम्न ने रणांगण में भिड़कर उसे जीत लिया। (14) 1 ६ । 2. ब. ह । और भी, जो दुष्ट शत्रु थे उनके भी क्षोभ का निवारण किया। किन्हीं को पकड़ा और किन्हीं को समर मैं विदार दिया। इस प्रकार वह प्रद्युम्न दिन प्रति दिन गुडि उद्धरणों (उत्सव विशेष ) तथा सहस्रों बन्दीजनों के निर्घोषों के साथ नगरी में प्रवेश करता था । उस प्रद्युम्न का गुणगान सभी के द्वारा किया जाता था। वह सर्वत्र पूजा जाता था, वह सभी के द्वारा नमस्कृत था, सभी उसके चरणों में पड़ते थे तथा स्तुति अभिनन्दन रूप उसका नाम (सर्वत्र) पढ़ा जाता था। उस नगरी में कोई भी ऐसी भित्ति (भीत) नहीं थी। ऐसा घर, पुर, पौर, राजकुल, खेड, मडम्ब, वेलाकुल (उत्सव - गृह) भी नहीं था, जहाँ उस प्रद्युम्न का चित्र न लिखा गया हो ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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