________________
प्रस्तावना
S
(चतुर्भुज) आदि इसके सुन्दर उदाहरण है। (7) अपभ्रंश-गीतिकाव्यों का हिन्दी-गीतिकाव्यों पर प्रभाव:- अपभ्रंश-साहित्य अपनी गीतियों के लिए प्रसिद्ध है। ये गीतियाँ कडवक के रूप में दृष्टिगोचर होती है। गेयता एवं भावों की तीव्रता ही नीतियों का प्रधान लभग है। इन अपभ्रंश गीतियों से प्रभावित होकर आचार्य गोवर्द्धन ने भी उनकी प्रशंसा मुक्तकण्ठ से की है। जयदेव की संस्कृत-गीतियों में यद्यपि उक्त दोनों तत्त्व वर्तमान हैं, किन्तु अनेक समीक्षकों ने उन्हें भी अपभ्रंश की छाया माना है। अपभ्रंश की इन गीतियों की परम्परा सूर के पदों. विद्यापति के गीतों एवं तुलसी की गीतावली में मुखरित
(8) अपभ्रंश के अन्त्यानुप्रास की धारा का हिन्दी-साहित्य में प्रवाह:-अन्त्यानुप्रास की यह प्रवृत्ति अपभ्रंशा की अपनी निजी-पद्धति रही है. जो जायसी एवं तुलसी आदि के साहित्य में स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। संस्कृत एवं प्राकत-साहित्य में उक्त प्रवत्ति नहीं पायी जाती। (9) गीतों में नाम-संयोजन की पद्धति:--हिन्दी-काव्यों के अन्त में अथवा प्रत्येक गीत एवं पदों के अन्त में प्रणेता-कवि के नाम के जोड़े जाने की पद्धति प्राय: अपभ्रंश कवियों से ही आयी है। अपभ्रंश काव्यों में 'भासइ सिरिहरु-सुकुमाल चरिउ' (वि०सं० 1208, अप्रकाशित) भणइसिद्ध पज्जुण्णचरिउ (वि०सं० 13वीं सदी अप्रकाशित धणवाल पयंपइ बहुबतिदेउचरिउ (वि०सं० 15वीं सदी. अप्रकाशित), जैसे कथन मिलते हैं। 'भणइ विद्यापति सोरठ गावहि' 'सूरदास प्रभु तुमरे मिलन को', एक नैन कवि मुहम्मद गुनी', 'तुलसी तिहारे विद्यमान जुवराज आजु, जैसे नाम-वाक्यों का अपने-अपने गीतों एवं पदों में प्रयोग किया। (10) अनुरणनात्मक शब्दों के प्रयोग-बहुल:अपभ्रंश- तोडइ तडत्ति तणु बंधणई मोडइ कत्ति हड्ड. धणई।
फाडइ चडत्ति चम्मइँ चलई घुट्टइ घडत्ति सोधिय जलइँ।। --(जसरचरिउ 2.37. 3-4)
झिरिमिरि झिरिमिरि झिरिमिरि ए मेहा बरिसंति। -(सिरिधूलिभहफागु) हिन्दी.. हहकत कूदत नचै कमंधं, कडक्कत वज्जत कुटुंत संधं ।
लहक्कंत लूटत तूटत भूमं । झुकते धुकंते दोउ वथ्य झूमं । ।
दडक्कत दीसंत पीसंत दंतं । -(पृथ्वीराक्षसो. पथ सं० 2110) (11) अपभ्रंश-शब्दावली का हिन्दी-काव्यों में प्राय: यथावत् प्रयोगअपभ्रंश – यथा— मुंडिय-मुंडिय मुंडिया सिर मुंडिउ चित्तु ण मुंडिया।
चित्तहँ मुंडण जिं कियउ संसारहं खंडणु तिं कियउ।। -(पाहुइदोहा पद्य 135) हिन्दी – केसों कहा बिगारिया जो मूडौ सौ बार।
मन को क्यों न गुंडिये जामें विषै विकार ।। - (कंजीर ग्र० पद्य 12, पृ0 221) अपभ्रंश— काइँ किलेसहिं काउ अयाणिए कि घिउ होइ विरोलिए (भविसयत्तकहा 2/7) पाणिए ।
1. दे० अर्गासप्तगती, पद्म 215: 2 0 -40साल खेलनी, वि०सं० 21113.23 189 (डॉ. हरिवंड)। ३. कबीर एन्थः नाव:सं पर 79 (auमी)। 4. दे दिधापटि पावनी। 5. सूर ने सौ कूटः पद्य 25.40 1:3(पाराणसी: वि०सं० 202381 . दमावत, स्तुतिसाद, पद्य 21. पृ: 20 चिगांव मिस 2018 ? करितादलो. लंकामाड. पद्य 24,1085 इलाहाबाद, निस: 2013) :