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महाकद सिंह सिउ पजण्णचरिउ
एवं पाहुडदोडा आदि दूहा छन्द में ही लिखे गये। यह दूहा ही हिन्दी में दोहा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसमें 13 एवं 1। मात्राएँ अथवा 14 एवं 12 मात्राएँ होती हैं। सम्भवतः अपभ्रंश के उक्त काव्यों से ही दोहों की परम्परा कबीर, जायसी, तुलसी, रहीग एवं बिहारी को प्राप्त हुई। __हिन्दी के तोरठा, बरवै एवं कुण्डलिया के पूर्वार्द्ध का विकास भी अपभ्रंश के पत्ते एवं दूहा से ही हुआ। उसी प्रकार अष्टपदी, छप्पथ, पादाकुलक, एज्झटिक.. हरिगीता, तारका. मदनावतार आदि छन्द भी हिन्दी को अपभ्रंश की ही देन है। (3) सन्धि-पद्धति: -अपभ्रंश-काव्यों में सर्ग एवं आश्वास के स्थान पर सन्धि का प्रयोग मिलता है। सन्धि का अर्थ है जोड़। अपभ्रंश-काव्यों में किसी कथानक के एक प्रकरण-विशेष की समाप्ति को सन्धि कहा गया है। इसमें प्रथमांश की समाप्ति एवं अग्रिमां। का प्रारम्भ इन दोनों के पूर्वापर-सम्बन्ध की अभिव्यक्ति रहती है। इसीलिए सम्भवत: इसका नाम सन्धि पड़ा। हिन्दी-काव्यों में सन्धि की परम्परा अपभ्रंश से ही आई। इस प्रकार के काव्यों में ब्रह्मगुलालचरित। (छत्रपति विरचित) आदि काव्य प्रमुख है आगे चल कर सन्धि का यह रूप पृथ्वीराज रासो में 'समय'. पद्मावत में खण्डु' एवं रामचन्द्रिका में प्रकाश के रूप में विकसित हुआ। (4) हिन्दी के रासा-साहित्य की प्रेरणा का प्रमुख स्रोत:-हिन्दी-साहित्य के आधुनिक-कान को छोड़कर वीरगाथाकाल अथवा आदिकाल, भक्त्तिकाल एवं रीतिकाल अपभ्रंश-साहित्य से पूर्णत. प्रभावित है। वीरगाथाकालीन रासा-साहित्य के लिए अपभ्रंश के उपदेशरसायनरस (वि०सं०1132). भरतबाहुबलीरास (वि०सं०1241), अम्बूसमिरास (वि०सं०1266), रेवंतगिरिरास (दिसं०1288) गयसुकुमालरास (वि०सं०1300) एवं समरारास (वि०सं०1371) आदि प्रेरणा-सूत्र माने गये हैं।
हिन्दी के रासा-साहित्य में भाषा का गठन भी तात्कालिक स्थानीय कुछ अनिवार्य प्रवृत्तियों को छोड़कर, अपभ्रंश-व्याकरण के आधार पर हुआ है। नरतिनाल्ह कृत 'वीसलदेवरासो' के विषय में डॉ० रामकुमार वर्मा का यह धन ध्यातव्य है-"वीसलदेवरासो का व्याकरण अपभ्रंश के नियमों का पालन कर रहा है, कारक, क्रियाओं और संज्ञाओं के रूप अपभ्रंश-भाषा के ही हैं। अतएव भाषा की दृष्टि से इस रासो को अपभ्रंश-भाषा से सद्य: विकसित हिन्दी का ग्रन्थ करने में किसी प्रकार की भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए।" (5) अपभ्रंश के समान हिन्दी में भी “काव्य" के स्थान पर चरित शब्द का प्रयोग:- "काव्य" के लिए "चरित" शब्द का प्रयोग हिन्दी में प्रायः अपभ्रंश से आया है। यथा-..-.अपभ्रंश के पासणाहचरिउ, पज्जुण्णचरिउ, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ, महावीरचरिउ के बल पर हिन्दी के रामचरितमानस, सुदामाचरित, सुजानचरित, वीरसिंहदेवचरित आदि। (6) अपभ्रंश की प्रेम-कथाओं का हिन्दी-साहित्य में प्रेमाख्यानक-काव्यों के रूप में विकासः-अपभ्रंश में 'मयपारेहाकहा', रयणसेहरनिबकहा, सन्देशरासक तथा भविसयतकव्व, णायकुमारचरिउ, जसहरचरिउ जैसे अनेक ऐसे काव्य हैं, जिनमें आपाततः प्रेमकथानक अथवा प्रसंगानुकूल प्रेम-कथाओं की चर्चाएँ आती हैं। इनका स्पष्ट विकास हिन्दी-काव्यों में हुआ और जिनका नामकरण हिन्दी-साहित्य के इतिहासकारों ने प्रेमाख्यानक काव्यों के रूप में किया। इस प्रकार के काव्यों में से चन्दापन (दाऊद), पद्मावत (जायसी), चित्ररेखा (जायसी), मधुमालती
1.DOFO
संस्था दि.
1961 ई०) से प्रज गित।
2. दे
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20 डॉ. रामनार वर्मा, प्रिय:। 1948 ई०
पृ. 208 ।