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________________ [22] 5 10 5 महाकर सिंह विरकर पज्जुष्णचरिउ सो(2) मह भुवणे दिडु वाहुदंडु जा कंचणपह चिरु तासु घरिणि तउ करिवि सावि कालंतरेहिं वेपट्हो दाहिण - दिहि विभाइ घत्ता— सीहउर रवण्णए धण-कण पुण्णए सूरम्मह विज्जाहरहो । राणियहे सुणेत्तह्ने ससहर- वत्तए दुहिय जाय सुरकरि करहो । । 114 ।। (9) पुत्र धूमद्धउ णा अइफ्यंडु | यहि परज्जिय बालहरिणि । उप्पणिय भमिवि भमंतरेहिं । विज्जाहर-सेढिए णिरुवमाए । सा तार-तरल लोयण विसाल विज्जाहर पर परमेसरेण णामेण कालसंवर णिवेण गंदण-वण-चण कीलंति खयरि ता महु संठिउ जो अरुह-मग्गे सो अच्चुव - कप्पो चएवि आउ जो कडि सो जंवर आहिं अहिहाणाएँ जा जगि कणयमाल । परिणिय घणकूड'-णरेसरेण । णिय परियण सय णिच्छिय (2) सिवेण । जा मज्झहिं तहिं घणकूड णरि । संजय सुरु सोलहमि सगे । महुमहेण गब्धि रुविणिर्हि जाउ (३) । होसइ पच्छइ हरिहि दि पियाहे । असुर ( तापस का जीव ) भुवन में भटक रहा है। उस राजा कनकरथ की अपने नेत्रों से बाल हरिणी को भी पराजित कर देने वाली गृहिणी कंचनप्रभा ने भी तपस्या की और कालान्तर में मरी, पुनः अनेक भवों में भ्रमणकर विजयार्ध की दक्षिण दिशा में प्रभावाली निरुपम विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न हुई। पत्ता धन-धान्य से पूर्ण एवं रम्य सिंहपुर के ऐरावत हाथी की सूँड के समान भुजाओं वाले सूरप्रभ विद्याधर की सुन्दर नेत्रवाली तथा कमलमुखी रानी की वह पुत्री हुई ।। 114।। [7.8.5 ( प्रद्युम्न के पूर्व - जन्म - कथन के प्रसंग में-) राजा मधु के जीव का कृष्ण पत्नी रूपिणी के पुत्र रूप में जन्म एवं छठवें दिन असुर द्वारा उसका अपहरण उन्नत, चंचल एवं विशाल नेत्रों वाली वह (विद्याधर ) कन्या जग में कनकमाला के नाम से प्रसिद्ध हुई और विद्याधरों के स्वामी धनकूट के परमेश्वर - नरेश्वर से उसका विवाह कर दिया गया। उस घनकूट नरेश्वर का नाम कालसंवर था। जो अपने सैकड़ों परिजनों को निश्चित रूप से शिव (कल्याण, सुख) देने वाला था । मेघकूट नगर के घने नन्दन वन में जब वह विद्याधर, विद्याधरियों के साथ क्रीड़ाएँ कर रहा था उसी बीच में अरहन्त-मार्ग में स्थित जो पूर्ववर्त्ती तपस्वी राजा मधु था और जो (पण्डित मरण कर ) सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ था, वह अच्युत स्वर्ग से चमकर आया और मधुमथन (पति से) रूपिणी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। कैटभ (का जो जीव मुनि होकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुआ था वह ) भी वहाँ से चम कर हरि की प्रिया जाम्बवती के गर्भ से बाद में के रूप में उत्पन्न होगा | (8) (2) असुर (9) {1) मैज्ञकूठपूर। (2) बांछित सौख्येन (3) उत्पन ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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