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________________ 7.8.4] मलाकार सिंह विरहउ पज्जृष्णचरित [121 संकुइय कमले सो ए2' विवण्णु तं पेच्छिवि महिवई मणि णि विष्णु । घाणिंदिय लुइँ छप्पएण णिय-भरणु ण याणिउँ जिम अणेण । तिम अवर वि विसयासत एम णिन्छउ मरंति अलि मुअउ जेम। इय चिंतिनि झत्ति गैरसरेण णिहणिय दुजय वम्मीसरेण । ढोएवि रज्जु णिय णंदगासु अप्पुणु गओ तहो महमुणिहिं पासु। अणुसरिय तेण जिणणाह दिक्ख "मुणिणाहहो केरी परम-सिक्ख । किय सव्व संग-परिचायएण तवयरणु घोरु आढत्तु तेण। घत्ता--- तेम कियउ कणिलें जम चिरु जेट तउ-संजमु-चारित्तु बउ । सा कइडिहु राणउँ भुवणे पहाणउँ आउसंति अच्चवहो गउ।। 113 || 10 (8) तव-णियम पहावइँ अरुह-मग्गे जो कंचणरहु वडउर पहाणु सो भवे-भमंतु तावस तवेण उप्पाइवि असुरकुमारु जम्मू ते बिपिण बिट्ठिय सोलहमे सग्गे। कंचणपह विरह विमुक्क ठाणु । पंचग्गि-विसम विसहेवि तेण। जीवहो अइदुद्धरु राव-कम्मु । को देखकर महीपति कैटभ का मन वैराग्य से भर उठा (और विचारने लगा कि) जिस प्रकार घ्राणेन्द्रिय के लोभी इस भ्रमर ने अपना मरण नहीं जाना, उसी प्रकार अन्य अनेक विषयासक्त प्राणी भी उसी भ्रमर के समान मर जाते हैं। यह चिन्तनकर उस नरेश्वर कैटभ ने दुर्जय कामदेव को नष्ट कर तथा अपने नन्दन को राज्य देकर वह स्वयं महामुनीन्द्र के पास चला गया। वहाँ उसने मुनिनाथ से परम शिक्षाएँ सुनकर जिन-दीक्षा का आश्वय ले लिया। उसने सर्वपरिग्रह का त्याग कर घोर तपश्चरण प्रारम्भ कर दिया। घत्ता- उस कनिष्ठ कैटभ ने उसी प्रकार तप, संयम एवं चारित्र व्रत का पालन किया, जिस प्रकार कि पूर्व में उसके बड़े भाई मधु ने किया था। भुवन में प्रधान वह कैटभ मुनि की आयु के अन्त में अच्युत नामके सोलहवें स्वर्ग में गया।। 113।। (8) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-} राजा कनकरथ मरकर तापस एवं उसके बाद असुर कुमार देव तथा रानी कंचनप्रभा मरकर विद्याधर-पुत्री हुई अरहन्त मार्ग में तप-नियम के प्रभाव से वे दोनों (मधु एवं कैटभ) ही सोहलवें स्वर्ग में स्थित हुए। वटपुर का प्रधान जो राजा कंचनरथ था, उसने रानी कंचनप्रभा के विरह के कारण स्थान छोड़ दिया (अर्थात् सद्गति प्राप्त नहीं कर सका)। संसार में अनेक गतियों में भटककर वह एक तापस हुआ। उसने विषम पंचाग्नि तप तपा जिसके प्रभाव से उसने असुर कुमार का जन्म पाया। इस जीव का राग कर्म (मोह कर्म) अत्यन्त दुर्धर है। वह दृढ़ बाहुदण्ड वाला अति प्रचण्ड धूमध्वज नामका (TO!. अ.. 4. गिग। 2. 4 आस । 3. 4. 'सु । (7)(तस्थित्वामृतः। (४) (1) हे दवर्ति।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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