________________
120]
5
10
महारुद्र सिंह विरइज पन्जुण्णचरिउ
(6)
गिंभमाले खर किरणाभावणु पक्खोवास - मास उनवासहिं तणु खामि जल्ल- भल्ल विल्लित्तउ अंतयाले सण्णास मरेष्पिणु परम पंच- णवमार सरेप्मिणु अच्चुव - 'कप्पे हुवउ सो सुरवरु यि तथु-तेज हामि उडु पहु एम तो सुर "सोक्ख भुजंतहो
विसहइ महु गिरि-सि'रि 'तमम । एम वावीस परीसहो सामहिं । हिज धम्मविसेसु णिस्तउ । चउविह आराहण भावेष्पिणु । मुणि- पंडिय मरणेण मरेपिणु । सहज सु कड्य-मउड - कुंडलधरु | मोहि पवरामर अच्छरसहु अच्चुव सम्में णवर अच्छंतहो ।
धत्ता - एत्तहिं कोसलपुरे कंचणमय घरे रज्जु करइ कयsिहु वि जहिं । "सो एक्कहिं वासरे गयउ महासरे पंकयवणे कमलेक्क तहिं ।। 112 ।। (7)
दिउ राय रवि उदय काले
महुलिहु पइडु जो ") तहिं वियाले ।
[7.6.1
(प्रद्युम्न के पूर्व - जन्म - कथन प्रसंग में - ) धोर तपस्या कर मुनिराज मधु अच्युत देव राजा कैटभ ने एक सरोवर में कमल पुष्प देखा
हुए ।
वह मधु (मुनि) ग्रीष्मकाल में गिरि शिखर पर सम- मन से तीखी सूर्य किरणों का आतापन सहता था ( आतापन योग ) । पक्ष के उपवास एवं मास के उपवास करता था । इसी प्रकार समभावों से बाईस परह सहता था। उसका शरीर कृश तथा जल्ल (स्वेद) एवं मल से लिप्त हो गया। उसकी चमड़ी और हड्डी शेष रह गयी । वह तपस्वी मुनि अन्तकाल में संन्यास मरण करके चार प्रकार की आराधना भाकर परमपंच - णमोकार को स्मरण कर पण्डित - मरण से मरा । फलस्वरूप वह अच्युत कल्प में सहज सुकटक, मुकुट एवं कुण्डल धारी सुरवर हुआ। अपने शरीर के तेज से उसने उड्डु प्रभा (तारा कान्ति) को भी तिरष्कृत कर दिया। इस प्रकार प्रबर अप्सराओं के साथ मोहित वह देव अच्युत स्वर्ग में सुख भोगता हुआ आनन्द पूर्वक रहने लगा ।
घत्ता — इधर, कंचनमय घरों वाले कोसलपुर में जहाँ वह कैटभ राज्य कर रहा था, वहाँ एक दिन वह (कैटभ) महासरोवर पर गया, जहाँ उसने पंकजवन में एक कमल पुष्प देखा । । ।12।।
(7)
(प्रद्युम्न के पूर्व जन्म - कथन के प्रसंग में - ) राजा कैटभ की मुनि दीक्षा एवं अच्युत स्वर्ग - रामन सूर्योदय (प्रभात) काल में राजा कैटभ ने देखा कि उस कमल पुष्प के बीच में एक मधुलिह (भ्रमर ) प्रविष्ट हो गया है और सन्ध्या-काल में कमल के संकुचित होने पर वह वहीं स्थित रहकर मर गया है। उस मृत भ्रमर
(7) (3) कमले ।
(6) 1. ब. सिहरे । 2. अ. एनम्मर्ण व पर्ययम्। 3. अ क । 4. असगे । 5. अ. य 6. ब. "भो ।