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________________ 7.5.10] महाका सिंह विरार फणुपणचरित [119 10 घत्ता- णय-विणय विसिट्ठउ भाइ कणिठ्ठउ कपडिहु रज्जि ठवेप्पिणु। उज्झाउरि राणउँ भुवणि पहाणउँ समभावण भावेप्पिणु ।। 110।। (5) संसार-जलहि उत्तरण कूले जइ पुंग'मसु तहो पाय-मूले। तवयएणु लइउ महुराणएण धम्मस्थ-काम सु वियाणएण। जिम महुरायइँ कंचणपहाउ वउ पडिवण्णउँ कंचणपहाइँ। राएण राउ मउ-माणु चत्तु समभावए मण्णिउँ सत्तु-मित्तु। तिणु कंचणु पुणु मणि तुल्लु दिछु । णवि रूसइ-अह ण कयावि हि ठु। णिरु. पंचमहव्वय-भार धरणु णिज्जिणिउ जेण पंचविहु करणु । समिदीउ-पंच पालई अतंदु गुत्तित्तय माहह फुडु सुकंदु। जसु भउ ण-माणु-मच्छरु ण हरिसु सज्झायज्झाणु णिय मणहो हरिसु । घत्ता- तरुमूले घणागमे विसई दुद्दमे जलधारा णिरु तडि वडणु । पुणरवि सिसिरहो भरे अइणिणरु दुद्धरे णिमिहि चरणहे हिम पट्टणु ।। ! 11 || 10 घत्ता- भुवन में प्रधान अयोध्यापुरी का नय-विनय (न्यायनीति) में विशिष्ट वह मधु राजा अपने कनिष्ठ भाई कैटभ को राज्य में स्थापित कर समभाव की भावना भाने लगा।। 110|| (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन-प्रसंग में-) राजा मधु एवं रानी कनकप्रभा का दीक्षा ग्रहण एवं कठिन तपश्चर्या ___संसार समुद्र से पार उतरने के लिए तट समान उन यति पुंगव के चरणमूल धर्म, अर्थ एवं काम के सुविज्ञाता उस राजा ने तपश्चरण ले लिया। जैसे ही राजा मधु ने तप ग्रहण किया, वैसे ही कंचन के समान प्रभावाली उस कंचनप्रभा ने भी व्रत स्वीकार कर लिये। राग, मद, मान आदि सभी का उस राजा ने त्याग कर दिया तथा शत्रु एवं मित्र को समभाव से माना। पुनः उन्होंने अपने मन में तृण एवं कांचन को एक समान देखा। न कभी वह रूठता था और न प्रसन्न होता था। उस राजा ने भली-भाँति पंच-महाव्रतों को धारण कर लिया और पाँचों ही इन्द्रियों को जीत लिया। अतन्द्र (प्रमाद रहित) पंच समितियों का पालन किया, मोक्ष की मूल तीन गुप्तियाँ पालीं। जिसके न तो भय था और न मान ही, न तो उनके मत्सर था और न हर्ष ही। वे मन लगाकर हर्ष पूर्वक स्वाध्याय एवं ध्यान करते रहते थे। घत्ता- दुईम धनों के आगमन पर (वर्षा ऋतु में) तरु के मूल में बिजली चमकती तड-तड पड़ती जलधारा को सहते थे (अर्थात् वे वर्षा योग करते थे) पुनरपि शिशिर के भार युक्त शीतकाल की अति दुर्धर रात्रि में वे चतुष्पथ में हिमपतन को सहते थे (अर्थातु शीति योग करते थे)।। 111 ।। (5) 1. अ 'या। 2. अ. "दि। 3. अ.व ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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