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महाका सिंह घिराउ पत्रुग्णचरिउ
[7.3.8
ता राउ पयंपइ रामणेण ___ दुहु पत्तु भुवण संतावणेण ।
पिय भणइँ दोसु परयार जइवि भणु किण्ह देव तुम्हह ण तइवि। घता- कंचणपह वयणहिं पउलिय णयणहि थि उ णरवइ तुहिक्कउ ।
अद्भुद जगु भाविवि मणि परिभाविवि णं भव-पासहिं मुक्कउ ।। 109 ।।
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(4)
एम अप्पउ जिंदइ जाम राउ जिण भणियां जाउ "सुपावणाउ ता भव्व पवर कइरव सुचंदु मज्झण्हयाले रिया णिमित्तु सो णियविअ' चिंतिय सिवेण उट्ठिवि वंदिउ सव्वायरेण सुणि परमेसर मुणि-गण पहाण तवयरण अज्जु महो देहि सामि
विसयाहितास विरइय) बिराउ। चिंतइ णिरु वारह-भावणाउ । णामेण विमलवाहणु मुणिंदु। जा भवियायण पंकरुहू मित्तु । णियमणि परिभाविवि पत्थिवेण । पुणु भणिउ णिरु सविणय गिरेण । तव-णियम-सील-संजम णिहाण। भो मोक्ख महापुर माग गामि।
उसके लिये तलवर द्वारा पकड़ा हुआ) वह व्यक्ति भुवन में सन्ताप देने वाला दुःख भोगे (अर्थात् शूली प्राप्त करे) तो फिर हे प्रिय, आप ही कहिए, कि वही दुःख आप क्यों न भोगे?" पत्ता- कंचनप्रभा के वचनों को सुनकर वह राजा (मधु) नेत्र निमीलित किये हुए चुपचाप रहा और जगत
की अध्रुव-(अनित्य) भावना को मन में उत्तार कर उस ने अपराधी को मुक्त कर दिया। मानों वह स्वयं ही भव-पाश से मुक्त हो गया हो।। 109 ।।
(प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन-प्रसंग में-) राजा मधु को वैराग्य, उसने
मुनिराज विमलवाहन से दीक्षा मांगी वह राजा मधु जब आत्म-निन्दा कर रहा था, तभी विषयाभिलाषा से विरत होकर उसने वैराग्य धारण कर लिया जिनोक्त जो पवित्र अध्रुवादि बारह भावनाएँ हैं उनका वह चिन्तन करने लगा। उसी समय भव्य कमलिनियों के लिए चन्द्रमा के समान तथा भविकजन रूपी कमलों के लिए सूर्य के समान विमलवाहन नामके मुनीन्द्र मध्याहनकाल में चर्या निमित्त पधारे। आत्म-कल्याण का चिन्तन करने वाले उस चतुर पार्थिव ने अपने मन में भावना भाकर (वहाँ से) उठकर सभी प्रकार के आदरपूर्वक उनकी बन्दना की और सविनयवाणी में निवेदन किया-"तप, नियम, शील एवं संयम के निधान, मुनिगण में प्रधान हे परमेश्वर, सुनिए.---मोक्षरूपी महापुर के मार्ग में गमन करने वाले हे स्वामिन्, मुझे आज ही तपश्चरण (दीक्षा) दीजिए।"
(3) 2. अ. हि। (4) 1. अ. म ।
(4) (1) त्यजभिलिलावैरागत. 1 (2) जमा ।