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________________ 7.3.7] महाकह सिंह विरइउ पज्जुण्णचरित ता धाइए मंचोवरि ठिया..... दक्खालिउ पुणरवि सो बि ताहें । दिट्ठा जाणिउँ कंचणपहाए बुच्चइ एहु जि सो माइ-माइ। हा पिय पिय महु विरहाणलेण एवड्डो वत्थहिं गयउ तेण । हउँ पाविणि णिवडे समि तमाले जं वंचिउ पिउ 'णव पणय-काले। घत्ता- महुराणउँ ण उण्णयमाणउँ तहि अवसरे संपत्तउ । कंचणपह णिय-पिययम कह जपइ तहि भड जुत्तउ।। 108 ।। 10 आरत्तिउ लोणुत्तणउँ.... पयडवि पडिबत्ति स वारणउँ । जा ठिय कंचणपह देवि खणु तलवरहो भिच्चु तावेक्क स्वणु। आवेप्पिणु णरवइ विण्णवइ पणवेप्पिणु तेणि बुच्चइ णिवइ। णरु एक्कु देव बंधिवि धरिउ परयार करणु तें आयरिउ । अच्छइ दुवारे भणु किं कमि किण्णि हणमि कि अज्जुबि धरमि। णरणाहु पयंपइ मा धरउ उत्भुन्भु तिक्ख-सूलिहिं भरहु । 'राणियए पत्तुच्चइ करि म कोहु परयारह सामिथ कोवि गेहु। तब मंच के ऊपर बैठी हुई धाप ने उस राजा (कनकरथ) को रानी के लिये पुनः दिखलाया। कंचनप्रभा ने जैसे ही उसे देखा तो पहचान लिया और बोली-“हे भाई, हे माई, यह तो वही है। हा प्रिय, हा प्रिय, मेरे विरहानल से तू ऐसी दुर्दशा को प्राप्त हो गया है। मैं पापिनी तो ऐसे तमाल (भयानक अन्धेरे) में आ पड़ी हूँ। हे प्रियतम, मैं तो नव-प्रणय-काल में ही ठग ली गयी हूँ। छत्ता- (संयोग से) उसी समय उन्नत मान वाला वह राजा मधु अपने भटों सहित वहाँ आ पहुँचा। तब कंचनप्रभा ने उसे अपने प्रियतम की (व्यथा-) कथा कह सुनायी।। 108 ।। (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन-प्रसंग में-) परस्त्री-सेवन के अपराधी को शूली की सजा (सुनाये जाने) से रानी कनकप्रभा राजा मधु पर क्रोधित हो उठती है लोण समान मधुर राजा मधु के प्रति आसक्ति प्रकट कर वह अनुरागिनी रानी कंचनप्रभा- देवी जब बाहिरी छज्जे पर खड़ी थी, उसी समय तलवर (कोतवाल) का एक भृत्य (वहाँ) आया और नरपति (मधु) को प्रणाम कर उससे विनयपूर्वक बोला- "हे देव, मैंने आज एक मनुष्य को बाँध कर पकड़ा है। उसने परदारकरण (परस्त्री गमन) किया था। वह द्वार पर स्थित है, कहिए क्या उसे मार दूं अथवा अभी पकड़े ही रहूँ?" तब नरनाथ ने कहा—"पकड़े ही मत रहो, उसे (तत्काल) ऊपर की ओर खड़ी हुई तीली शूली पर चढ़ा दो।" (यह सुनकर) रानी ने पति राजा मधु से कहा- क्रोध मत कीजिए. क्योंकि इस घर में भी तो परदारा-सेवी कोई स्वामी (उपस्थित) है?" आगे वह रामा (कंचनप्रभा) राजा से पुन: बोली कि परदारगमन यदि (भयंकर) दोष है, (और (2) 1. अ. मय। (3) | अ. राणिय एवतुच्चड़ न करहु कोहु ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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