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महाकह सिंह विरहाउ पजुण्णचरिउ
[7.1.11
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एम गाम-णयर-कब्बडु भमंतु सो कंचणपह राणियहे कंतु । विहि संजोग कोसल पइटु धाइए सउहलय ठियाएँ दिछु । ऊलक्विबि बाहुब्भ''रिय णयणु सों पुंछ सो कंचणपह सुवयणु । हे माइ-माइ तुहु रुवहि काइ भणु हिय उल्लइ दुक्खाइँ जाइ।
एत्यंतरे धाइ भणिउ पुत्ति संसारि विसम पुडु दइव जुत्ति। घत्ता- कय कम्मह एक्कहँ जम्महँ जम्म सहासु वि सीसइ । भव') परिणइ दुक्खहो गइ 'सए पच्चक्खु बि दीसइ।। 107।।
(2) कंचणरहु जो तुह आसि कंतु सो दिट्ठ मइँ रच्छ्हे भमंतु। गले घल्लिउ जक्वं थरय-खंडु चिर फरुस सीसु णिब्वाय तुंडु। मल-मलिण दसणु जय-कय विराउ विरहग्गि दछु धूसरिय काउ। ता पिन्भंछिया) कंचणपहाए के जंगहि अंसुहावणउँ पाए। सो धीर-वीर कुसुम-सर (य) तुल्ल तहो धड इव किं एरिसउ बोल्त।
प्रकार ग्राम, नगर, खर्वटों में घूमता हुआ "भो कंचनप्रभा", भो कंचनप्रभा चिल्लाता हुआ रानी कंचनप्रभा का पति वह कनकरथ विधि (भाग्य) के संयोग से उसी कोशलपुरी में प्रविष्ट हुआ। उसे सौधतल पर स्थित एक धाय ने देखा।
उसे देखकर उस धाय के नेत्रों में आँसू भर आये। रानी कंचनप्रभा ने उससे पूछा--- "हे माता, हे माता, तू क्यों रोती है। तेरे हृदय में भरे हुए जो दुःख हैं उन्हें कह ।" यह सुनकर धाय ने कहा-“हे पुत्रि, संसार में दैव की युक्ति सचमुच ही बड़ी विषम है।" । घत्ता- "एक जन्म का किया हुआ कर्म हजारों भवों तक भोगना पड़ता है। भव की परिणति ही दुःखों की
गति है, सो यहाँ प्रत्यक्ष ही दिखायी दे रही है।। 107।।
(2)
(प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) अपने प्रियतम कनकरथ की दुःस्थिति
रानी कनकप्रभा राजा मधु को सुनाती है ".....कंचनरथ जो तुम्हारा पहला पति था, उसे मैंने गली में घूमते हुए देखा है। जो अपने गले में कथरी का टुकड़ा लटकाये हुए है, सिर के बाल चिरकाल से रूखे हो रहे हैं तथा मुख कान्तिहीन हो रहा है। उसके दाँत मल से मलिन हैं तथा जो अस्वाभाविक बोली बोल रहा है। धूलि-धूसरित वह विरहाग्नि से जल रहा है। यह सुनकर कंचनप्रभा ने उस धाय को डाँटते हुए कहा—"हे माई, ऐसे असुहावने शब्द क्यों बोल रही है? मेरा पहला पति तो धीर-बीर एवं कामदेव के तुल्य है । उसको धीठ की तरह इस प्रकार के बोल क्यों बोल रही हो?"
(1) 3. अ. सुणि।
(10(३) प्रवाह । (4) कर्मयुक्ते । (5) संमार परिणति। (2)() निरभ्रष्ट ।