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________________ 7.1.10] महाका सिंह विराज प पारित [115 सत्तमी संधी (1) सुसहायही " सह मरावही कंचणपहहि समाणहो। भुंजतहो कील कुणंतहो रइ-रस अणुहरमाणहो।। छ।। उज्झाउरि पवर णरेसरहो अरि-तम-भर णिठ्ठ वणेसरहो। तहो रज्जु कुणंतहो परवइहो लच्छी-पउमिणि माणससरहो।" उत्तुंग मत्त सिंधुर-गइहो कंचणमालहे तहो णरवरहो। छहरिउ' पयडण कुच्छरहँ गयहिमि कयवय संवच्छरहँ। सो वडउरवइ पिय विरहरत्तु कंचणपह पवर गहेण भुतु। खणे रुबइ-हसइ खणे गेउ करइ खणे पढइ खणे चितंतु मरइ।। खणे णच्चइ खणे उम्भाइ-धाइ खणे अण्ण कवलु उवब्भुन्भु खाइ। खणे लुटाइ खणे णिय वेसु मुवइ खणे पाय-पसारिवि पुणु वि रुवइ । 5 सातवीं सन्धि (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन प्रसंग में-} विक्षिप्तावस्था में राजा कनकरथ अयोध्या पहुँच जाता है, जिसे देखकर कंचनप्रभा की धाय रोने लगती है जिसके अनेक सहायक हैं ऐसा वह राजा मधु कंचनप्रभा के साथ भोग भोगता हुआ कीड़ाएँ करता हुआ रति रस का अनुसरण कर रहा था ।। छ।। शत्रु-रूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान तथा अयोध्यापुरी के प्रवर नरेश्वर के रूप में राज्य करते हुए उस राजा मधु के मानस रूपी मानसरोवर में राज्यरूपी लक्ष्मी एवं कनकप्रभा रूपी पद्मिनी दोनों का ही निवास था। उत्तुंग मत्त सिन्धुर के समान गति वाली रानी कंचनमाला (कंचनप्रभा) और राजा मधु के छह ऋतुओं के अनुकूल उत्सवों को मनाते-मनाते सहज ही अनेक वर्ष बीत गये और इधर बडपुर का अधिपति प्रिया के विरह से उन्मत्त वह कनकरथ कंचनप्रभा रूपी प्रवर ग्रह से ग्रस्त होने के कारण क्षण में रोता था तो क्षण भर बाद हँसता था और क्षण भर में गाने लगता था। किसी क्षण वह (कुछ) पढ़ता था तो किसी क्षण वह चिन्तन करता हुआ मृत के समान हो जाता था। क्षण भर में वह नाचने लगता था तो क्षण भर में खड़ा होकर दौड़ने लगता था। क्षण भर में अन्न का ग्रास खडे-खडे खा लेता था. तो क्षण भर में लोटने लगता था, क्षण भर में अपना वेस छोड़ देता था, तो क्षण भर में पैर पसार कर वह बार-बार रोने लगता था। इस (1) 1. अ. गरि। 2. व्य. 'तु। (1) (1) रस्य प्रथुर सहाय) | (2) मानसरोवरस्य ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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