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________________ 114] महाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णचरिउ 1623.7 रंखोलिर कंकण णेउरेण दिहि करहि इयर अंतेउरेण। इय बयणु चवइ जो मंति कोवि असि-दंड पहारहिं हणइँ सोवि । घत्ता.... कंचणपह विरहेण जोव्वण व समिद्धउ । तुर बाउला या शेः कणवरहु पसिद्धउ।। 106 1। इय पज्जुण्ण-कहाए पयडिय धम्मच्छ-काम-मोक्खाए। कइसिद्ध विरइयाएं छठी संधी: परिसमत्तो ।। संघी: 6।। छ।।। 10 द्वारा अधिकृत कर ली गयी है। अत: अब खन-खन बजने वाले कंकण एवं नूपुर वाली अन्य अन्त:पुर की रानियों से धृति धारण करा।" इस प्रकार के वचन जब किसी मन्त्री ने कहे, तब वह राजा असि के और दण्ड के प्रहारों से उसे मारने लगा। घत्ता- यौवन और रूप से समृद्ध प्रसिद्ध वह राजा कनकरथ रानी कंचनप्रभा के विरह के कारण उसी समय से बावला (पागल) हो गया ।। 106 1। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली सिद्ध कवि द्वारा विरचित प्रद्युम्न कथा में मधु-कैटभ के कथान्तर तथा कनकप्रभा के अपहरण सम्बन्धी छठी सन्धि समाप्त हुई। ।। सन्धि: 6।। छ।। (23)2. अहि। 3. अ. 'ल। 4. अर15. अ. मधु कनिह कहंतर कण्यप्पावहरणं णाम।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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