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________________ 6.23.6] महाका सिंड विराउ पज्जुण्णचरित [113 रावलि महुरायहो लच्छि सहायहो तम्मि खणे जय मंगल वज्जिय पडह सुसज्जिय बंदि घणे। तम णि यर पहंजणु जण-मण रंजणु अरुणछवि ता पवर महीहरे उदयगिरिहित) सिरे उइउ रवि। कंकेल्लहिं पत्तुव अरुणरुत्तुव दिसि गणिहे णं तहि मुह-मंडउ कुंकुम-पिंडिउ घण घणहे । घत्ता...- पुहवीसरु जं कुणइं तपि अज्जुत्तु-विजुत्तउ । कि राउलिय कहाए णायर-जणेण पउत्तउ।। 105 ।। (23) परयारासत्तइँ पत्थिवेण सा अपगमहिसि परिठविय तेण। भिच्चयणु जि कंचणरहेण) मुक्कु गउ सो जाएवि वडउरहो ढुक्कु । तिणि वइयरु कहिउ असेसु जाम मुच्छाविउ सो कणयरहु ताम । अहिसिंचिउ सलिलइ सीयलेण पडिवाइउ चल'-चमराणिलेण । उहाविवि बोल्लिउ परियणेण तुहु आउ समप्पिवि सहि करेण । रामहि भवि सूरहि सामि साल परहत्थ जाय सा भुयविसाल । प्रभात होते ही अपनी सहाय वाले उत्त राजा न की शांघ्र ही प्रा खुल गया। जयमंगल ध्वनि होने लगी। पटु-पटह बजने लगे और बन्दीजन सुसज्जित हो गये। तभी तम रूपी रज के लिए प्रभंजन (वायु), जनों का मनोरंजन तथा अरुणछवि (लाल कान्ति) युक्त रवि महीधर प्रवर उदयगिरि के शिखर उदित हुआ। वह ऐसा प्रतीत होता था, मानों कंकेलि का रक्त-पत्र ही हो। अथवा मानों दिग्गजों पर लाल छत्र ही तन गया हो, अथवा मानों घनस्तनी नारियों के मुख का मण्डल करनेवाला कंकम-पिण्ड ही हो। घत्ता- पृथिवीश्वर जो कुछ भी करता है वह अनुचित होने पर भी उचित के समान ही माना जाता है। राजकुल की कथा-वार्ता को नागरजन से कहने में क्या लाभ? ।। 105 ।। (23) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन-प्रसंग में-) राजा मधु रानी कनकप्रभा को पट्टरानी का पद प्रदान करता है। उधर राजा कनकरथ इस समाचार को सुनकर विक्षिप्त हो जाता है परदारासक्त उस पार्थिव मधु ने रानी कनकप्रभा को अग्रमहिषी पद पर स्थापित किया। उस रानी की सुरक्षा के लिए राजा कनकरथ ने जिनभृत्य-जनों को छोड़ा था, वे अब बडपुर वापिस लौट गये। जैसे ही उन भृत्यों ने राजा मधु की करतूतों का समस्त वृत्तान्त कहा वैसे ही वह राजा कनकरथ मूर्छित हो गया। उन्होंने शीतल सलिल से राजा का अभिसिंचन किया, चंचल चमरों की वायु से उसकी प्रतिपत्ति—उपचार किया परिजनों ने उसे उठाकर कहा-..."तुम स्वयं अपनी रानी को उसके लिए समर्पित कर आये हो।" हे स्वामिन्, हे साल श्रेष्ठ, हे भुजविशाल, अब तो बह रानी परहस्तगत हो गयी। वह लोक में शूरवीर राजा (22) 1. ब. णिच्य। (23) 1.अ. (22) 15) उदणचले। (23) il: विरसमूह । [2) तत्रधरितं ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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