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________________ 110]] महाका सिंह विरइउ पषुण्णचरित [6.19.2 10 ता महुणा मयणग्गि पलितें। गोसीरु धणसार पसि लें। अइवढिएण गरुय अणुरायई दुइय ताहि विसज्जिय राय। ता संकोयवि) णियय पयंगई4) अत्य-सिहरि आसरिय पयंगइ। णिवई अणय)- रोसएँ णं रत्तउ अह पच्छिम-दिह वेसहि रत्तउ। अह रतो वि विविह पहरा हउ) ___ कोण अत्यवइ विविह पराहउ8)। अवरण्हइँ णिवडंत सूइँ संज्झा रत्त-लित्त जहिं सूर. । तणु पक्खालणत्थ तहिं 'चल्लिउ णं अप्पर जलरासिहि वोल्लिउ। धला. हि अस्थाणु फरेवि सिध स३. अरु जामहि । ढुक्किय उडु दसणठ्ठ णिसिवि णिसायरि तामहिं।। 102 ।। (20) निप्फारिय णह-पायाल-वणि पज्जलिय पईवारत्त णयणि । अलि-कसण-काय पिण्णछ मग्ग रवि भडउ गिलिबि णं गयणि लग्ग। एत्यंतरे तम'. दुज्जण णिसुंभु णं सिंगार मय पिहाण-कुंभु । मधु की गोशीर (चन्दन) और घनसार (कर्पूर) से सींची हुई वह मदनाग्नि और भी अधिक भभक उठी। अत्यन्त बढ़े हुए अनुराग के कारण राजा मधु ने अपनी एक दूती को कनकप्रभा के पास भेजा । उस समय अपनी किरणों को संकुचित कर पतंग (सूर्य) अस्ताचल के शिखर पर आश्रय ले रहा था, मानों मधुराजा के अन्याय पर रोण के कारण रक्तवर्ण होकर वह (सूर्य) पश्चिम दिशा में जाकर छुप गया हो। विविध प्रहारों से आहत प्रेमी भी अनेक प्रकार से तिरस्कृत होकर क्या छिप नहीं जाता? सन्ध्या की लालिमा से लिप्त सूर्य उसी प्रकार (समुद्र में) गिर गया जिस प्रकार समर-भूमि में लड़ता हुआ शूर-वीर अपराह्न में खून से लथपथ होकर गिर जाता है। इसीलिए मानों उस सूर्य ने चलकर अपने शरीर के प्रक्षालन-हेतु अपने को समुद्र में डुबा दिया है। धत्ता- वहाँ स्थान पाकर दशशत कर सूर्य जब ठहरा हुआ था तभी रात्रि में निशाचर (चन्द्र) उडुदर्शन के लिये आ ढुका (आ पहुँचा)।। 102 ।। (20) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) चन्द्रोदय वर्णन आकाश से पाताल तक वदन (मुख) फैलाए हुए प्रज्ज्वलित प्रदीप के समान रक्त किरण रूपी नेत्रों वाले भ्रमर के समान कृष्ण वर्ण वाले तथा नष्ट (भूले हुए) मार्ग उस सूर्य रूपी भट को निगल कर मानों चन्द्रमा आकाश में लग गया (अर्थात् रात्रि आ गयी)। इसी बीच अन्धकार रूपी दुर्जन का दमन करने वाला शृंगारमय निधान (खजाने) के कुम्भ कलश के समान (1992. अ. लि । 3. अम। 4. अ. यो। (19) (2) तत्या- 1 (3) संचोम्वा । (4) किरणा । (5) सूर्येण । (6) भूपस्य अन्याय रोषेण । (7) व. प्रहरैहतः । (8) प्रहारघाते: कनयः । {9) संभार न लिकन सूर्येण । (20) 1. ब. “स।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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