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________________ 6.15.5] 5 10 महाकड सिंह विरइज पज्जुण्णचरज अह संकहि तो दहि गढंतरे तं णिदिणु भी पलित्तउ रह-भड - तुरय-थट्ट दुग्धो हिं सपणज्झ वि दुग्गहो उवरियउ वावेदि भिउ सानु महुरा विहिमि वलहँ एम समरु पवलिउ कोवि कुंतहिं णिम्भिण्णु महाभड कैणवि कवि समुह(2) छइल्लई ( 3 ) पत्ता- 'अण्णेवि खीलिय इल-वलय सहु एक दि टल विण पडियउ । गउजीउ णाइँ कित्तिमु धड वि संभिडउ रणे भिडियउ ।। 97 ।। (15) तो दप्पुभडु जहिं महुराउँ तर्हि सो लग्गज "तो संमुहु ग महु भीमो रणु महु पडिखलइ को भरहन्तरे । णं हुवासु घिउघड-सयसितउ । सामंतहिं अरि दल 'मर ट्टहिं । रायध- सक्कु विरदु जें धरियउ । जो संग्राम भेय बहु जाणउँ । कासुवि कर सिर- कमलु पवट्ठिउ" । कासु वि अस हत्थउ णच्चइ धडु | उत्तु विसत्तसु रउ हउ सेल्लइँ । भीमइँ' गम-गमुळे । णिवह पहाणउँ । लक्स्वय स्वग्गउ । I मच्छर घण घणु । (14) 1.ब. 2. 3. अ. विं । (15) 1. अ. भेस 2. अ. "घडु" । 3-4 अ. प्रति में यह चरण नहीं है। [105 5 करते हो तो गढ़े के बीच दब जाओ ( छिप जाओ )। इस भरत क्षेत्र में ऐसा कौन है जो राजा मधु को पराजित कर सके । " दूत का कथन सुनकर राजा भीम क्रोध से जल उठा, मानों अग्नि पर सैकड़ों घड़े घी ही सींच दिया गया हो। रथों, भटों एवं तुरंग समूहों के दुर्घोषों तथा अरि-दलन में समर्थ सामन्तों से सन्नद्ध रायधशक्र विरुदधारी वह राजा भीम अपने दुर्ग से निकल कर आया और राजा मधु से जा भिड़ा। दोनों ही बलों का ऐसा समर होने लगा कि उसमें किसी का हाथ छिद गया तो किसी का सिर-कमल ही छिन्न हो गया। कोई महाभट कुन्तों से भिन्न हो गया, तो किसी के हाथ में असि लिए धड़ ही नाचने लगा। किसी के द्वारा कोई सम्मुख ही छेद दिया जाता है तो किसी राजा का घोड़ा हत (घायल) हो गया है फिर भी वह उसे चलाये जा रहा है । अन्य दूसरे भी इल वलय ( भूमण्डल) में कीलित हो गये किन्तु एक भी राजा ढीला नहीं पड़ा, मानों, जीवरहित कृत्रिम धड़ ही मिल कर रण में भिड़ रहे हों ।। 97 ।। घत्ता— (15) (प्रद्युम्न के पूर्व जन्म कथन के प्रसंग में - ) युवराज कैटभ एवं अरिराज भीम का युद्ध एक तरफ तो दर्प से उद्भट गजगामी भीम था तो दूसरी ओर नृपों में प्रधान मधु राजा था। वहाँ वह मधु खड्ग उठा कर लड़ने लगा । वह भीम के सम्मुख गया। राजा मधु एवं अरिराज भीम में जब अत्यन्त मात्सर्य भाव से घनघोर भयंकर रण चल रहा था उसी समय लम्बी ध्वजा फहराता हुआ, पद से गज को प्रेरित करता (14) (1) प्रविष्ट । (2) सन्मुख (3) छेदित ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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