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महाक सिंह विरइ पन्जुण्णचरित
[6.13.2
जसु कइडिहु सहाउ सच्चरियउ सइँ केसरि अवर वि पक्खियउ। पर कि करमि उवाउ को पेच्छामि किमु पावमि एह कहिं किर गच्छमि। तं णिसुणेवि आमच्चइ वुमन एरितु काजु मंदिर मुकाद: अहवइ तुह अणुराउ ण भजमि विजय-जत्त काऊण पहुंजमि। एहु महुवयणु कुणहिँ णिरु चंगउ अवसु करावमि हउँ जि समग्गउ । तं सुमइहिं मंतिहिं वयणुल्लउ 'भग्गउ कणयपरिंदहो भल्लउ। पुणु वडउरहो राउ णीसरियउ भीम गरिंदहो उप्परि तुरियउ।
वलिय सेण्ण पयमरु असहतिए आकपिउ भए तसिय धरित्तिए । 10
फणि-सलवलिय चलिय गिरि ठायहो णियवि पयाणहो महुमहरायहो। पत्ता- पेसिउ भीमहो दूउ तेणि जाएवि पवोल्लियउ। उ करि मयर रउद्दु णं समुद्दु उच्छल्लिउ ।। 96 ।।
(14) पसरिउ चाउरंग कल्लोलउ भीमु-भीम एहु तुहुँ जग बोल्लउ । रायधसक्कु पत्तु कोसलबइ
समरे भिडइ जइ तो पहरणु लइ । गयी है, वह मुझे स्वयं विपक्षी (रूपी हाथी) के लिए दूसरा सिंह समझो। परन्तु मैं क्या करें, कौन उपाय देवू? उस रानी कनकप्रभा को मैं कैसे पाऊँ? और उसे प्राप्त किये बिना मैं कैसे जाऊँ?" यह सुनकर अमात्य बोला"हे सन्त आप ऐसा कार्य (अभी) क्यों सूचित करते हैं? अथवा, मैं आपके अनुराग को भंग नहीं करना चाहता हूँ। किन्तु विजय यात्रा करके उसका उपाय जोदूंगा। यह मेरा वचन भलीभाँति प्रमाणित कीजिए। उसके बाद आगे मैं उसकी (कनकप्रभा की) उपलब्धि अवश्य करवा दूंगा।" वह उस सुमति मन्त्री के वचन सुनकर कनक-नरेन्द्र की भलाई ही भूल गया।
पुन: वडपुर से राजा निकला और तत्काल ही भीम नरेन्द्र पर जा चढ़ा। बलवत्ती सेना के पद भार को सहन न करती हुई पृथिवी उसके भय से काँपने लगी। मधु राजा के महान् प्रयाण को देखकर गिरि भी अपने स्थान से टल गया तथा फणी भी सलवला गया। घत्ता- सर्वप्रथम) राजा मधु ने अपना दूत अरिराज—भीम के पास भेजा। वह दूत भीम के सम्मुख इस
प्रकार पहुँचा, मानों रौद्र समुद्र में से मकर ही ऊपर उछल पड़ा हो।। 96 ।।
(14) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) राजा मधु एवं अरिराज का भीषण युद्ध दूत ने जा कर अरिराज भीम से कहा— चतुरंगिणी सेना रूपी समुद्र की कल्लोलें चारों तरफ पसर गयी हैं, हे भीम, अब तुम जागो और हे भीम, बोलो (अब तुम क्या चाहते हो? हे रायधशक, कोशलपति राजा मधु यहाँ पहुँच गये हैं। यदि तुम उनसे समर में भिड़ते हो तो प्रहरण (आयुध) हाथ में लो। अथवा, यदि शंका
(13) 1. अ. रु। 2. अ. उहकार।
(13) ["कधकथयति