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________________ 102] 5 10 महाकर सिंह विरइ पणचरिउ तहि मंडलिउ कणयरहु णामइँ सा महुसेहो समुहु पराय गुडि उद्धरण कराविवि पुरवरे किय पडिवत्तिवि तहो परमत्थइँ णरवइ कणयासणे वइसारिउ जा उत्त" चा कणयप्यह दहि जनउ सादिि (11) तार- तरल सरलुज्जल लोयणि घत्ता - सा पेछेवि महुराउ चिंतइ (11) 1-2 अ प्रति में यह पंक्ति नहीं है। 3. ऊ "वर": जो मायंग तुलइ भुअ थामइँ । सिरेण णमंतहो दिण्णउ साइउ । पुणु तैं कोसलवइ णिउणिय- घरे । पिए सिहुं विच्छ सहत्थइँ । णं पिय- विरहु सइँ जि हक्कारिउ । 'कणरहो राणी कणमप्पह । अल्लव हियइँ पहिट्ठिय । तरणि जुवाणह?) कामुक्कोयणि । रायत्तई । किं हि एही उ माणियइ बलि हय-गय-रह - छत्त ।। 94 ।। (11) ( प्रद्युम्न के पूर्व जन्म - कथन प्रसंग में- ) वडपुर नरेश कनकरथ राजा मघु का स्वागत करता है। उसकी रानी कनकप्रभा पर राजा मधु आसक्त हो जाता है वहाँ कनकरथ नामका माण्डलिक, जो कि मातंग ( गज) के समान भुजा स्तम्भवाला था, वह मधु की सेना के सम्मुख आया और उसने सिर झुका कर ( नमस्कार कर ) स्वागत किया। फिर अपने वडपुर में गुडि उद्धरण (सजावट) कराया। पुनः उस कोशलपति मधु को अपने घर ले गया। वहाँ उसने परमार्थवश उसकी इस प्रकार प्रतिपत्रि ( आदर-सत्कार) की मानों अपनी प्रिया के साथ उस ( कनकरथ) के विछोह की सूचना ही हो। कनकरथ ने राजा मधु को कनकासन पर क्या बैठाया, मानों उसने स्वयं ही अपनी प्रिया के विछोह को ही बुला लिया । उस कनकरथ की अग्नि में तपाए हुए स्वर्ण की प्रभा के समान कनकप्रभा नामकी रानी थी। राजा मधु ने जब चंचल, सरल एवं उज्ज्वल नेत्र वाली तथा युवक जनों के मन में कामांकुर उत्पन्न कर देने वाली उस तरुणी ( कनकप्रभा ) को दही एवं अक्षत से अपनी आरती उतारते हुए देखा तब वह मधु राजा के हृदय में काम रूपी भाले के समान प्रवेश कर गयी । घत्ता- उस रानी (कनकप्रभा ) को देखकर मधुराजा इस प्रकार चिन्तन करने लगा - से क्या ? बली, घोड़े, हाथी, रथ एवं छत्रों से भी लाभ क्या ? यदि मैंने किया ?" ।। 94 ।। [6.11.1 (11) (1) दाघोतीर्ण (2) महुराणी 1 - " मेरे राजापने इसे प्राप्त नहीं
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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