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________________ 6.8.10] महाकइ सिंह बिरइउ पज्जुण्णचरिउ 199 ते तहो "चुय पुणु कोसल-पुरम्मे सिरिकणह णाह रायहो घरम्मे। लायण्ण-मणोहर-धारिणिहें उप्पण्ण गब्é ते धारिणिहें ।। घत्ता– वियसिय कमलाणणहे जणिय गरिंदहो धीयहे। वं पांडेवाडए जाम लवणकुस जिम सीयहे ।। 90 ।। 10 18) ते सव्व-सुलक्खण चारु-गत्त उत्तत्त-कणय-छवि-कमल-वत। वड्दति माउहरे बेवि केम सिय-पक्खिउ इह ससि-कलहिं जेम। महु-णामु गुणंगहि जेठु भणिउँ कइडिहु वि कणिठ्ठहो पुणु वि गुणिउँ।। एम रज्जु करंतहो णिववरासु संवत्थर वारह' गय वि तासु। ता वेक्कहिं दिणे णं गिरि पयंडु विहडंतु णिहालिवि मेह-खंडु। तहो रायहो पावेवि तं णिमित्तु रज्जोवरि खणेण विरत्तु चित्तु। किउ रज्ज धुरं धरु महुकुमार जुवराउ कइडिहुड सुहड सारु। चामीयर णाहु सिरी मुएवि सुह मुणिहे पासे जिण-दिक्ख लेवि । वावीस-परीसह सहणसीलु संठिउ पालिय तव-लच्दिछ लीनु । 10 महुराउ अउज्झहे रज्जु करइ चत्तारि-वण्ण सुह-मागेधरइ। कनकनाथ के घर में उनकी लावण्य-पूर्ण मनोहर-धारिणी, रानी धारिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए। घत्ता- विकसित कमलानन के समान राजा कनकनाथ की रानी धारिणी से वे दोनों पुत्र उसी प्रकार उत्पन्न हुए जिस प्रकार सीता के लवण एवं अंकुश ।। 90 ।। (8) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) राजा कनकनाथ ने अपने दोनों पुत्रों – (मधु-कैटभ) को राज्य सौंपकर मुनिराज शुभ से दीक्षा ग्रहण कर ली समस्त सुलक्षणों से युक्त, सुन्दर-गात्र, तपाये हुए स्वर्ण की छवि वाले, कमल के समान मुख वाले, वे दोनों कुमार मातृगृह में किस प्रकार वृद्धिंगत होने लगे? उसी प्रकार, जिस प्रकार शुक्त पक्ष में चन्द्रमा की कलाएँ बढ़ने लगती हैं। अपने गुणों के कारण जेठा पुत्र मधु कहा गया तथा कनिष्ठ को कैटभ नाम वाला कहा गया। इस प्रकार राज्य करते हुए उस राजा ने जब संवत्सर व्यतीत किये तभी एक दिन उसने पर्वत के समान प्रचण्ड मेघखण्ड को विघटित देखा। उसी निमित्त को पाकर राजा को तत्क्षण ही राज्य-लक्ष्मी से वैराग्य हो उठा और राज्य की धुरा पराक्रमी कुमार मधु को देकर कैटभ को युवराज पद प्रदान किया। कनकनाथ ने अपनी राज्यश्री को छोड़कर "शुभ" नाम के मुनिराज के पास जाकर जिन-दीक्षा ले ली और बाईस परीषहों में सहज रूप से ही सहनशील होकर तपरूपी लक्ष्मी को पालता हुआ स्थिर हो गया। मधु राजा अयोध्या में राज्य करने लगा और चारों वर्गों के लोगों को शुभ मार्ग में लगाने लगा। (7) 3. य. नु। (8) 1. अ छुदु। 2. ब "ग। (R) (I) करितः
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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