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महाका सिंह विरहउ पज्जण्णचरित
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मणिभद्द-पुण्णभद्दई विसिछु तं कोऊहलु सहि सुणिउँ दिछ। दिढवय पुणु सावइ धम्मे जाय तिक्काल णमंसहि अरुह पाय । चउसंघे प चउब्बिहु दाणु दित Uहवणच्चणु जिण अणु-दिणु कुणंत । घउपव्वेसु पोसह-वंभचेर |
परिगह-पमाण दिसि-विदिसि-मेर । भोगोपभाप - परिसंख करेवि । कालंतरे अण्णासेण भरेवि।
गय पढम-सग्गे पुणरवि कुमार सह जाय मउह-कोऊर-धार । घत्ता- हुव बिण्णिवि गिटवाण इंद-पडिंद समाण तहिं ।
अइणिम्मल तणु-कति धाउ-विवज्जिउ देहु जहिं ।। 89 ।।
सलर-तर-कमा नार-चलंग मंदार-माल-भूसिय-सरीर माणस-सरवरे कीला करंत मंदर-कंदरहिं रमंत संत णंदीसर दीवाई धुणंत एम कालु ताहँ तहिं जाइ जाम
देवंग-वत्थ-पल्लव-ललंत । सम्माइट्ठिवि संसार 'तीर। ठिय दिव्व-विमाहिं संचरंत । जिणविंव-अकित्तिम-सय मंत।
पूरिय दो-उदहि पमाणु ताम।।
"दृढ़तापूर्वक श्राक्क-व्रतों का पालन करते हुए तथा अरहन्त के चरणकमलों को त्रिकाल नमस्कार करते हुए, चतुर्विध संघ को चार प्रकार के दान देते हुए, प्रतिदिन जिनेन्द्र का न्हवन-अर्चन करते हुए. चारों पर्वो के प्रोषध, ब्रह्मचर्य, परिग्रह प्रमाण, दिशा-विदिशा की मर्यादा भोगोपभोगों का परिसंख्यान करके तथा कालान्तर में संन्यास मरण करके वे कुमार एक साथ मुकुट-केयूर को धारण करने वाले प्रथम स्वर्ग वाले सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए। पत्ता- वहाँ वे दोनों इन्द्र-प्रतीन्द्र के समान अत्यन्त निर्मल कान्तिवाले तथा धातु-विवर्जित शरीर वाले देव
हुए।। 89 ||
विगुप्ति मुनिराज द्वारा मणिभद्र-पूर्णभद्र का पूर्व-जन्म-कथन श्रेष्ठ अप्सराएँ अपने हाथों से चमर हुराती हुई आयी और उन्होंने पल्लवों के समान लहराते हुए देवदूष्य उन (दोनों सौधर्म देवों) को प्रदान किये। मन्दार-पुष्प की मालाओं से भूषित सांसारिक शरीर वाले वे देव मानस-सरोवर में कीड़ाएँ करते हुए, दिव्य-विमानों में बैठ कर संचरण करते हुए, मन्दराचल की कन्दराओं में रमण करते हुए, सैकड़ों अकृत्रिम जिन-बिम्बों को नमस्कार करते हुए नन्दीश्वर द्वीपादि की स्तुति-वन्दन करते हुए, वहाँ जब पूरे दो सागर प्रमाण काल व्यतीत हो गया तब वे वहाँ से च्युत हुए और कोशलपुरी के राजा श्री
(7) I. अ. "|| 2. अ. उन्हो'।