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महाकद्र सिंह विरइज पज्जुण्णचरिउ
घत्ता — हूण चीण- करहाडलाइ - बंग केरलवइ ।
घत्ता-
गउड-दिविड़-कण्णाड गयरह--सुअ परिणयण मइ ।। 86 ।।
(4)
(1)
मंचहि रायकुमार असेसवि कय सिंगार सार सुपरिमि तहि मणि- पुष्णभट्ट गुण पोढवि एत्थंतरे सा कण्ण सुलोयण मणि - कुंडल - मंडिय गंडस्थल कण-कणंत उण्णय कंकण करे मणियारेहि(2) आरूढिय सुंदरि । उणं सग्गहो अवयरिम पुरंदरि । कुसुममाल करयले उच्चल्लिय पुरउ परितिय धाइ विहाव
13)
मालव टक्क-चोड़ पंडीसवि । अमर-विमाहिं णाइँ अहिठिय देखण मिसेण मंच आरूदेवि । णिग्गय णावर आसि सुलोयण । 'रयणावलि घोलिर् वच्छत्थल ।
'णवजोवण परहुत कोमलसरि रायकुमारि भुवणतय सुंदरि रोहिणि णाइँ सयंबरे चल्लिय । कुमार रायकुमर दरिसावइ ।
एत्यंतरे सो देउ णंदीसरु
संपत्तउ ।
जगे - उज्जोउ करंतु णं रवि किरण फुरंतउ ।। 87 ।।
धत्ता- हूण, चीन, करहाट, लाट, बंग, केरलपति, गौड, द्रविड, कर्णाट से ( राजा - गण ) गजरथ राजा की पुत्री से परिणयन कामना लेकर वहाँ आये 11 86 ।।
(4)
(प्रद्युम्न के पूर्व जन्म - कथन के प्रसंग में-) राजकुमारी का स्वयंवर, जिसमें नन्दीश्वर देव भी उपस्थित होता है।
[63.11
मंच पर मालव टक्क, चोल एवं पाण्ड्य आदि के राजागण बैठे। सार-श्रृंगार कर सुप्रतिष्ठित तथा अमर विमान में अधिष्ठित देवी के समान वह वहाँ आयी । पुनः वहाँ गुणों से प्रौढ़ मणिभद्र, पूर्णभद्र भी उसे देखने के बहाने मंच पर आरूढ़ हुए। इसी बीच सुलोचना तथा सुन्दर मणियों के कुण्डलों से मण्डित कपोलों वाली वह सलोनी राजकुमारी ( माला) वहाँ से निकली। उसके वक्षस्थल पर रत्नावली (हार ) झूल रही थी तथा हाथों में कण-कण करने वाले बहुमूल्य कंकण थे। नवयौवना तथा कोमल के समान स्वर वाली वह सुन्दरी मणियों से भूषित हथिनी पर आरूढ़ होकर चली। वह ऐसी प्रतीत होती थी मानों स्वर्ग से इन्द्राणी ही अवतरित हुई हो। वह राजकुमारी तीनों लोकों में (अतिशय ) सुन्दरी थी । हाथों में कुसुममाला उठाये हुए रोहिणी के समान बह स्वयंबर में चली। राजकुमारी की धाय आगे थी, जो उसे राजकुमारों को दिखा रही थी ( अर्थात् परिचय दे रही थी ) । इसी बीच संसार में उद्योत करता हुआ अपनी किरणों से स्फुरायमान सूर्य के समान वह नन्दीश्वर देव भी वहाँ आ पहुँचा।। 87 1
घत्ता
(4) 1-2 अ प्रति में यह चरण नहीं है 34. अ. प्रति में यह चरण नहीं है।
(4) (1) सुलोचना (2) हस्तिनी । (3) विचारयति ।