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________________ 6.3.101 महाकत मिह बिरहज पज्जपणार 195 घत्ता- जाणाहेण मुधोनि सहि साणिहि सण्णास -विहि । पर जि णवयार होइय भव-सिप्पीर-सिहि ।। 85 ।। मा समावदा मरेच *.झार पारणाहहं समरे दुगच्चरहें। गयर राउ परिजय पंदणु जो रपाभरे परबल कय महत् । तहो रे हिणि णामेण वसुंधरा मीलामल-गुण साम वसुंधरि । तहे तुच्छोवरे सा) TIRU:) चारः रूब चामीगर-विपणी। दिवि-दिवि ससहर-कंतिध जइ तग लागण्णण रिटेल आयड्ढ़द । छुट्ट-छुडु बाल भव परिवज्जिय णाई अगंगई भन्लिनि सज्जिय। उक्कुक्कुरिय सिहि पाप व वरि जाय जुवापाई क्कामुवकोपरि । जह-जह पोद्धत्तणु-तण पावई जिज्दा मज्या रमण पिहुलाया । सा पेच्दति चिंतिउ मणे ताप २६३ सयंबक गारह रायई। कोसलपुरि परियरिय ससंचहि दिसु भुमर परतर मचा RETRE पत्ता- यतिनाथ ने अपने मन में (उस श्वानी की प्रवृत्ति) समझ कर उरी समय संन्यास-विधि कर दी और भव-इन के लिये अग्नि समान वणगोकार भी उसे धारण कराया।। 85 ।। 10 (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन प्रसंग में-) श्वानी शुभ-मरण कर अयोध्यापुरी के राजा गजरथ के यहाँ जन्म लेती है। उसके स्वयंवर का वर्णन वह (श्वानी) शुभ भावों से मर कर युद्ध में प्रात्रु राजाओं के लिए दुर्गम अयोध्यापुरी में जन्मी। भणे यापुर: के राजा का नाम गजरथ था जो कि अरिंजय का पुत्र था। वह रण में परबल (शत्रुसेना) का मन करने वा था। उसकी वसुन्धरा नाम की हिणी थी, जो निर्दोग पील-गुण रूपी शरय के लिए बसुन्धरा थी। का उसके उदर से वह कुत्ती (का जीव) कन्या रूप में जन्मी। उस कन्या का रूप अत्यन्त सुन्दर और ण धामीफरसुवर्ण के समान था। चन्द्रकला के समान वह कन्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। उसके शरीर की लावल्य- ऋद्धि भी वृद्धिंगत होने लगी। धीरे-धीरे वह बालभाव को छोड़कर तरुणभाव को प्राप्त होने लगी। वह नर्स लगती थी मानी अनर ने उसे भले प्रकार सजा दिया हो। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होत. 'था मानों वह उत्तुंग चपान शिखि-वाला ही है। अथवा युवकों के लिए कामांस्फर ही हो । जैसे-जैसे उसे प्रौढ़ाने का शरीर प्राप्त हुआ, उसके रगण-मल्लकों की पृथुलता ने कटिभाग को क्षीण बना दिया। अपनी कन्या की उस तत्वावस्था को देखकर उसका पिता राजा गजरथ बड़ा चिन्तित हुअा। उसने एक स्वयंवर रच। (उस अवसर पर) कोपाल की उस पुरी अयोध्या को चारों और सुन्दर सामग्रियों एवं गंचों से लगातार घर (कर, सुन्दर बना दिया। 11) ||| - ICTIVE || 11- 4 I 151 - HIो मन ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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