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महाका सिह यिरन पजुण्णचरिउ
[6.1.13
पत्ता- आयह) सुअ आसि भिहिं सग्गहो आइय ।
'धारिणिय हे उप्पण्ण विण्णिवि तुम्हहँ भाइय।। 84 ।।
एउ कारणु संबंधहो लक्खिउ तं णिसुणेविण सुमरिय जम्मइँ चंडालेण भणिउँ परमेसर एमहिं सो उवएसु कहिज्जइ तं णिसुणेवि मुपिण्डाहइँ वुत्तउ साणिवि जा किर इह वंभणि तुह एत्यंतरे चण्डालु सुवुद्धिएँ परम पंच-णवयार सरेप्पिणु हुब गंदीसर णामई सुरवरु (इलयल कल सिर मुगि चरणग्गइँ
भव्व भवंतर तुम्हहँ अक्खिउ। चिंतिवि 'मुक्किय-दुक्किय कम्मइँ । तुह पय सरणउँ हय-वम्मीसर । संसारिणिय जेण तिस छिज्जइ । तीस दिवस तुअ आउ णिरुत्तउ। सा मण्णहि सत्तमे वासरे मुअ। अणुक्य-गुणवय घरेवि विसुद्धिएँ । सल्लेहण मरणेण मरेप्पिणु। कड़य-मउड-मणिमय कुंडल धरु । चल लंगूल ललावि रमग्गईं।
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घत्ता -..
"तुम दोनों पहले इसी के पुत्र थे। अभी स्वर्ग से आये हो और धारिणो से उत्पन्ना तुम दोनों भाइ उली के पुत्र हो।" ।। 84।।
मुनिराज द्वारा चाण्डाल एवं श्वामी का पूर्वभव कथन एवं उनकी संन्यास विधि “यही तुम्हारे सम्बन्ध (लेह) का कारण लक्षित होता है। हे भव्य, भवान्तर भी तुम्हें बताया गया।" यह सुनकर तथा पूर्व जन्म को स्मरण कर वह चाण्डाल विचारने लगा कि अब दुष्कृत कर्मों से मुक्ति पाऊँ । यह निश्चय कर उस (चाण्डाल) ने मुनिराज से कहा—"हे परमेश्वर, है हतकामदेव, मुझे अब आपके चरणों की ही शरण है। अब वह उपदेश कहिए जिससे संसार सम्बन्धी त्रास छूट जाये।"
चाण्डाल का निवेदन सुन कर मुनिनाथ ने कहा-"अब तेरी आयु तीस दिन की ही शेष है। यह श्वानी भी, जो कि, तुम्हारी ब्राह्मणी (पूर्व भव की पत्नी) थी, वह सातवें दिन मृत्यु को प्राप्त हो जायगी, ऐसा मान लो।" मुनिराज की भविष्यवाणी का उस पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसे (चाण्डाल को) उसी समय सुबुद्धि उत्पन्न हुई और उसने विशुद्धि पूर्वक अणुव्रत-गुणव्रत धारण कर लिये पंच णमोकार मन्त्र का स्मरण कर सल्लेखना मरण से मरण कर वह चाण्डाल नन्दीश्वर नाम कटक, मुकुट, मणिमय, कुण्डलों का धारी देद हुआ।
वह कुत्ती भी मुनि के चरणों के आगे अपने सिर को पृथिवीतल पर लगा कर चंचल लॉगूल (पूँछ) के साथ बैठ गयी।
110 1. अह'। (2) 1.अशु"12.5 ली।
(1) 13) रत्गोः योः। (2) सम्बन्धी। 12 वीजत्ला ।