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6.1.121
महाका सिंह विर पण्णचरित
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घुवक- जहि अणु-दिणु चउवेय-घोसु णिरतरु किज्जइ।
जण्ण-विहाण-मिसेण विप्महि पसु, होमिज्जइ।। छ।। तहिं आसि वियाणिय जण्ण-कम्म णामेण वसई दिउ सोमसम्मु। तहो वंभणि अग्गिलाहिहाण
सुव बेवि ताहि गुण-गण-णिहाण। हुअ अग्गिभूइ-मरुभूइ णाम
वेयागम-सत्थ-पुराण-धाम। ते बिण्णिवि जिणवर-धम्म सुणेवि अणुवय-गुणवय दिढमणेण कुणेवि । सिक्खावय पालिवि चारु मग्गे सल्लेहण मरणई पढम सग्गे। संजाय अमर सुर णमिय चरण सहजाय कड़य-मणि-मउड धरण। पिउ सोमसम्मु अग्गिल वि जणणि'' दय-दूसणे मुणि गुण-गणणि हणणि । बिण्णि वि पसु जण्ण-मिसेणवहेवि रयणप्पह-णरए दुदोह सहेवि। पुणु कम्म वसइँ चंडालु जाउ सो सोमसम्मु एह तुम्ह ताउ। जा जणणि आसि मणिभद्द सुवहिं सा दुरिय पहावई जाय सुणहि ।
छठी सन्धि
(प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) शालिग्राम निवासी सोमशर्मा एवं अग्निला के पूर्व-भवों का वर्णन धुवक-. जहाँ उस शालिग्राम में प्रतिदिन चारों वेदों का निरन्तर घोष किया जाता है तथा जहाँ यज्ञविधान के
बहाने विनों द्वारा पशु होमे जाते हैं।। छ।। ___ वहाँ पहले यज्ञों का ज्ञाता सोमशर्मा नामका द्विज निवास करता था। उनकी अग्निला नामकी ब्राह्मणी पत्नी थी। उसके गुण-गण निधान दो पुत्र थे। उनका नाम अग्निभूति वायुभूति के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वे भी वेदागम शास्त्र-पुराणों के धाम (ज्ञाता थे। उन दोनों ने जिनवर का धर्म सुनकर अणुव्रत, गुणव्रत का दृढ़ मन से पालन किया। शिक्षाव्रतों का भी सुन्दर रूप से पालन किया।
अन्त में सल्लेखना मरण से दोनों प्रथम स्वर्ग में प्रधान देव हुए। जिनके चरणों में अन्य देव नमस्कार किया करते थे, जो सहज ही उत्पन्न कटक, मणिमय मुकुटों के धारी थे।
पिता सोमशर्मा और अग्निला माता ने गुणगण से युक्त मुनिगणों को दूषण दिया (हनन कराया), दोनों ने यज्ञ के बहाने पशुवध किया, उस कारण से रत्नप्रभ नामक प्रथम नरक में दु:ख समूह सहा। फिर वह कर्म वश चाण्डाल हुआ है। तुम मणिभद्र सुतों की जो माता थी वही पाप के प्रभाव से यह शुनी हुई है।"
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जानरयो । पत्रमा उत्पन्न ।