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महाकाह सिंह विराउ पज्जुण्णचरित
[5.16.10
10 घत्ता- णासग्गु वि धरहिं कय कुस करहिं संझा-वंदणु जहिं किज्जइँ।
सिद्ध रसोइ घरे मज्झण्ण भरे दिवि-दिवि जहिं परिवाइज्ज.।। 83 ।। इय पज्जुण्ण कहाए पयडिय धम्मस्थ-काम-मोक्लाए कई सिद्ध विरइयाए पज्जुण्णसंभु भवांतर वण्णणं मणिभद्द पुण्णभद्द उप्पत्ती' पंचमी संधी परिसमत्तो।। संधी: 5।। छ।।
घत्ता- जहाँ पर नासाग्र पकड़कर कुश हाथ में लेकर (निरन्तर) सन्ध्या वंदन किया जाता है तथा मध्याह्न
काल में रसोई घर में ही बनी रसोई जहाँ दिन-दिन में परोसी और खाई जाती है।। 83 ।। इस प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रकट करनेवाली सिद्ध कवि द्वारा विरचित प्रद्युम्न कथा में प्रद्युम्न एवं शम्बु के भवान्तर वर्णन तथा मणिभद्र-पूर्णभद्र की उत्पत्ति सम्बन्धी पंचम-सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि : 5।। छ।।
(16) 2-3. ब. प्रति में यह चरण नहीं है।