SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5.16.9] महाकइ सिंह विराट पमुष्णचरिउ [9] मणिभद्द पमुहेहि अण्ण मय विमुहेहिं । घत्ता- सम) सुणतयहिं णयवंतरहिं मणिभद्द-पुण्णभद्दक्वहिं। सरमा धारिय करु चंडालु णरु दुच्चेठिउ दिछु "सुलक्खहि ।। 82 ।। (16) सरिम. 1) डलहो ग म सस्लिर सहो) तहिं तक्खणेण । जइ पुच्छिउ भणु कारणु मुणिंद __ भव्वयण-कुमुअ-छण-णिसि-सु चंद। सहुँ 'साणिएं राहु चण्डालु आउ तं अम्हहं णिरु कंटइउ काउ। एत्थंतरे भामइ मुणि-पहाणु भवियण कंदोट्ट-विआसे भाणु । पच्छिम-भवे तएँ तणउँ णेहु मणिभद्द दियाणहि सयलु एहु। एह भरहखेते मगहाहिहाणे उच्छुवण-सालि-धण-कण णिहाणे। तहिं सालिगामु णामेण गामु आराम-साम-सरि-सर-पगामु । मढ-मढिय पउर सुरहर विचित्तु जं देसु मंग-सलिलुअ पवित्तु । पउराणिय बहु पाढय समिद्ध कुरुखेत्तु व जो कणखले पसिद्ध । नमस्कार किया। घत्ता- आगम उपदेश सुनने वाले नय के ज्ञाता, सुलक्षण युक्त मणिभद्र, पूर्णभद्र ने सरमा (कुत्ती) हाथ में लिए हुए चाण्डाल नर को दुष्चेष्टा करते हुए देखा ।। 82 ।। (16) मणिभद्र एवं पूर्णभद्र के जन्मान्तरों का नवागत मुनि द्वारा वर्णन तब सरिमा (कुत्ती) और चाण्डाल के दर्शन से तत्काल ही उन दोनों (मणिभद्र एवं पूर्णभद्र) का मन आकर्षित हो गया। उन्होंने यति से पूछा—"भव्य रूप कुमुदों को प्रसन्न करने के लिए पूर्णमासी की रात्रि के चन्द्र समान हे मुनीन्द्र, इसका कारण समझाइए। इस कुत्ती के साथ यह चाण्डाल आया है, इनको देखकर हमारी काय कण्टकित हो रही है (रोमांचित हो रही है यह क्यों?)। यह सुन कर भव्यजन रूपी कमलों के विकास के लिए भानु के समान उन मुनि-प्रधान ने उत्तर में कहा—"मत भव में तुम्हारा इनके साथ स्नेह था। हे मणिभद्र, वह सब तुम इस प्रकार जानो।" ___इसी भरतक्षेत्र में मगध नामका देश है, जो इक्षुवन, शालि एवं धन-धान्य का निधान है। वहाँ शालिग्राम नामका एक ग्राम है, जो ग्राम, आरामों से श्याम (हरा-भरा) है। नदी सरोवरों से प्रकाम (पूर्ण) है। मढ-मढियों से प्रचुर है, वह ऐसा प्रतीत होता है मानों विचित्र सुरघर ही हो। जो देश गंगाजल से पवित्र है, अनेक पौराणिक-पाठक जनों से समृद्ध है, जो कुरुक्षेत्र अथवा कनखल के समान ही प्रसिद्ध है। (15) (5) आगम। (6) सुष्टु अपलोकन । (15) (1) रवीनी। (2) तपो. हृयो । (3) पकामे । (4) चिरन्तन पाठक सत्र। (ii) I. न मा।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy