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तव चरणु लइउ मुणिण पासि
तडयउ तोड़िय दिढ क्रम्म- पासि ।
पत्ता---- समउ अरिंजएण रणें दुज्जएण तउ पडिवण्णउ सामंतहिं । अवरेहिमि मंति महतहिं ।। 81 । 1
प्रिय दोयवि सुअहँ सुंदर
(15)
पुणु उवहिदत्ते (
वंदेवि मुणिणाहु आयरिय (2) जिण - दिक्ख तह (3) चेव धारिणिएँ
संगहिउ तब भारु दवि तह दक्ख (4)
(14) 3, रा. ।
मुणि-चलण पुज्जेवि णिय- लिउ संपत्त
सो संघु विहरंतु गउ कहिमि किर जाम
महाकद्र सिंह विरह पज्जुण्णचरिउ
मुणि अवरु संपत्तु उ मिलिवि सव्वेहिं
ग्रहण की) और कर्मों के दृढ़ पाश को तड़तड़ तोड़ दिया ।
घत्ता
जिण चलण-भत्तेण ।
जो मयण मय वाहु |
जा कम्मं कम-सिक्ख । संसारु तारिणिएँ ।
जिण समय जो सारु ।
मणि-पुण्णभद्दक्ख ।
दो- दह वि वय लेवि ।
मय-माण-भय-चत्त ।
भव्वयण हुदितु । गय कवि दिणताम ।
तहिं संग मल- चत्तु । अइविवि भव्वेहिं ।
[5.14.8
रण में दुर्जय अरिंजय राजा के साथ सामन्तों ने भी तप ग्रहण किया । सुन्दर भुजा वाले पुत्रों को समझाकर, सिर पर भार रखकर और भी अनेक महान् मन्त्रियों ने तप ग्रहण किया ।। 81 ।।
(15)
सेठ-सेठानी तथा उनके दोनों पुत्रों (मणिभद्र एवं पूर्णभद्र ) ने भी व्रत ग्रहण किये
जिनचरणों के भक्त सेठ उदधिदत्त ने भी काम रूपी मृग के लिए व्याध के समान उन मुनिनाथ की वन्दना कर उस जिन-दीक्षा एवं शिक्षा को धारण किया, जो कर्मों का नाश करती है। उसी प्रकार धारिणी (सेठानी) ने भी संसार से तारने वाले जिनतप का भार - संग्रह किया, जो जिन समय में सारभूत माना गया है तथा दक्ष (कुशल) मणिभद्र, पूर्णभद्र नामक उसके दोनों नन्दनों ने भी मद, मान एवं भय से रहित होकर मुनि चरणों की पूजा कर बारह प्रकार के व्रत ले लिये और फिर अपने घर लौट आये ।
वह संघ भी विहार करता हुआ तथा भव्यजनों को सुख देता हुआ कहीं अन्यत्र चला गया। कुछ दिन जाने के बाद परिग्रह मल रहित अन्य दूसरे मुनि वहाँ पधारे।
सभी विविध भव्यों ने मिल कर तथा मद से विमुख उन मणिभद्र आदि को लेकर अन्य मनुष्यों ने भी
(15) (1) समुद्रदत्तेन । (2) आम्चरितः । (3) धारिगीता (4) प्रवीणः ।