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महाकद सिंह विरइउ परजुण्णचरित
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संचलिउ तहिं
जइणाहु जहिं। सो वंदियउ
णि दियउ। मुणि-णाणवहो
तहो 'पच्छि वहो। उत्सगिदिन
आसीस वरं। देविणु सम्म
पयडिय धम्म। घत्ता- केवि संसार-थिरु णदि अस्थि णिरु धणु-कणु परियणु परियाणहि । तमु रवि-किरण-हउ तेम सयतु गउ एउ मुणेवि कुणहिं जं जाणहिं ।। 80 ।।
(14) मुणिणाहु पयंपइ दिव्य-वाय मणुव-तणु देवहँ दुलहु राय। मणुयत्तणेण सग्गापवागु
मणुयत्तें कु कुम्मइँ कुगइ-मग्गु । उत्तमु मणुयत्तणु लहेवि जेण) तउ-णियमु ण किउ हारियज तेण । णर-जम्में धम्मु जिणउ विढत्तु । ते णरय-महण्णव दुक्ख पत्तु । धम्मु वि दह-भेउ जिणिंद कहिउ माणुस-जम्में ण जेण गहिउ । भव-जलणिहि णिट्ठइ2) तासु अहि30) इय धम्माहम्मु जिणिंद कहिउ। तं णिसुणेवि तेण णरेसरेण उज्झाउरि-पुरि परमेसरेण।
के पश्चात् ज्ञानधारी मुनिराज ने हाथ ऊँचा कर आशीर्वाद दिया और सम्यक् प्रकार धर्म को प्रकट करते हुए कहाघत्ता- "यह धन, कन, परिजन, जितना तुम सब जानते हो वह कोई भी संसार में स्थिर नहीं है। जैसे तम
रवि किरणों से हत हो जाता है, उसी प्रकार सब कुछ नष्ट हो जाता है, ऐसा समझो और जो ठीक जानो सो करो।। 80।।
(14)
उपदेश श्रवण कर राजा का दीक्षा-ग्रहण मुनिनाथ पुन: दिव्य वचनों से बोले—"हे राजन् यह मनुष्य तन (पर्याय) देवों को भी दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय से स्वर्ग और अपवर्ग मिलता है। मनुष्य पर्याय में कुकर्म करने से कुमति का मार्ग भी मिलता है, ऐसा उत्तम मनुष्य जन्म पाकर भी जिसने तप, नियम नहीं किया, उसने मनुष्य जन्म को (व्यर्थ में ही) हरा दिया (खो दिया), जिन्होंने मनुष्य भव में धर्म का आचरण नहीं किया, वे नरक महार्णव के दुःख को प्राप्त होते हैं। जिनेन्द्र ने धर्म के दस भेद कहे हैं। सो ऐसे दशलक्षण धर्म को मनुष्य जन्म पाकर जिसने नहीं किया उस जीव का संसार समुद्र अभी आगे बहुत अधिक बड़ा है। जिनेन्द्र देव ने इसी प्रकार का धर्म-अधर्म का स्वरूप कहा है।" ।
उस उपदेश को सुनकर उस अयोध्यापुरी के परमेश्वर नरेश्वर ने मुनिनाथ के पास तपश्चरण लिया (दीक्षा
(13) 2.व. | 3. . पाछि.। (14) I. व जेगे। 2. अ. सो।
(13) (2) निजआत्मनं। (14) (1) पुरुपेण । (2) न समन्तिं भवति । (३) तस्प अधिकतः ।