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5.12.71
महाकद सिंह विरइज पज्जुण्णचरिउ
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जहिं लवलि-लवंग पियंग" भूरि मुणिवरु णामेण महिंदसूरि । मलु अंग भासु तवि बिमल चित्तु तिणु कंचणु जसु समु सत्तु-मित्तु ।
सो गाम-णयरि-कटवड़-भमंतु चउसंघ-सहिउ विहरतु संतु । पत्ता-.. तहिं उवविद्छु वणे ता तहि जि खणे वणवाल' 'पुणु किह दिन। तव-धार्य आगमणु फल-कुसुम-घणु जाणे विहु बउ-विसिट्ठउ।। 78 ।।
(12) तवो वणवालु पहुत्तु सुधउ
जहिं पुरे रावले संछिउ गउ। णवेवि पयंपिउ तेण गरिंद
अहो जण संत कईरव-चंद। अयाले वणासइँ फुल्लिय अज्जु मुलुक्कइ दाहिणु वाउ मणोज्जु । फलावलि भूरि कहिँपि ण माइ जलंपि णियाहिं उप्पहे धाइ। तहिं पि" वयष्णु सुहग्गइ गामि सामायउ-कोवि अरिंजय सामि । मुणीसरु चारु सिलाहि णिसण्णु भतोह-णिोदण असणा पसण्णु। वम्मि णिहालिउ जम्मइँ देव समीरिउ तं तुह सब्दु अलेव।
में महेन्द्रसूरि नामक मुनिराज पधारे । यद्यपि वे मलिन शरीर थे तो भी तप से भास्वर थे। उनका चित्त निर्मल था। जिनकी तृण-कंचन तथा शत्रु-मित्र में सम-दष्टि थी। वे मुनिराज ग्राम, नगर, कर्बट आदि में भ्रमण करते हुए चतुर्विध संघ सहित वहाँ (अयोध्यापुरी के नन्दन-वन में) आये। घत्ता. .. बे (जैसे ही) उस उपवन में बैठे उसी समय वनपाल ने देखा कि उस उपवन में (अकाल में ही) घने
फल-फूल लग गये हैं। तब उसने (वनपाल) उन तप-धारक मुनिराज के आगमन को ही इसका विशिष्ट कारण जाना।। 78 ।।
(12) (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) राजा अरिंजय मुनिराज महेन्द्रसूरि के दर्शनार्थ नन्दनवन में जाता है ___ सब दनपाल बहुत प्रहृष्ट (हर्षित) हुआ। नगर के राजकुल में जहाँ राजा स्थित थे वह वहाँ गया। उन्हें नमस्कार कर वह बोला-हे लोगो, सन्तों रूपी कमलों के लिए चन्द्रमा के समान हे राजन् (नन्दनवन में) आज अकाल में भी समस्त वनस्पति स्वयं फल-फूल उठी है। दक्षिण की मनोज्ञ वायु मुलक रही है (मन्द-मन्द बह रही थी)। फलावलि की प्रचुरता वन में कहीं भी नहीं समा रही है। जल भी निपानों (जलाशयों) से ऊपर उत्पथ में दौड़ रहा है। हे स्वामी अरिंजय, उसी वन में शुभगति से गमन करने वाले व्रती तथा प्रिय वचन बोलने वाले कोई स्वामी आये हैं। वे मुनीश्वर सुन्दर शिला पर बैठे हैं। वे संसार समूह (शरीर और भोग) से निर्विण्ण (उदास) हैं। असंज्ञ (आहार, भय, मैथुन, परिग्रह एवं संज्ञारहित) तथा प्रसन्नचित्त हैं। हे देव, जो मैंने वन में प्रत्यक्ष देखा है, सो सब आपको अलेप (बिना लाग-लपेट के) कह दिया है। उस वनपाल के मोती के समान
(11) 3. ब. स"। 4. अ. व'।
(I) (1) प्रदु1ि1 (2) संसार विरक्त आसनसः । (12) (1) बने। (2) उत्तवतः ।