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________________ 841 5 10 महाकइ सिंह विरइड एज्जुण्णचरिउ उमियइँ(।) कहु सामि तुह तणउँ माहप्पु तुह गाणे- तिय लोड गोपय- समायारु पछित्तू लहु (2) देहु पछु किंपि अम्हाण ता मुणिय आसण- भव्व तिं नियमणेण ते दिण्ण आयरेवि मण वयण - काएग पिमरेहिं पुणु भणिय जो लयउ वयभारु सिहिभूइँ- मरुभूइँ ते सुणेवि पुणु चवहिं जिण- भणिय मुणि-दिण्ण' वय- नियम जु | करइ ता तायइँ परिसेलिय गंदण तेहिं तारा-माय परिसि [5.8.2 जसु सु णवितोसु गवि माणु णवि दप्पु । । friधु रुइ गंथ - सत्यत्थ गउ पारु । धत्ता - पुणु पिउ परियणेण बहुविह-जणेण मण्णाविय तो वि ण भणाहिं । वेय-कहिय सथल (4) जे किंपि फल ते णिच्छउ सहि अवगण्णहिं ।। 75 ।। (9) () र वि जेम करहु पय-भक्ति तुम्हाण । अणुवय वि गुणवम वि सिक्खा सुवणेण । यि गेहु संपत्त सहुँ ताय-माएण । सो कुणवि माहणउ दिय- कुल समायारु इय वयण कहिंमाइ भुवणयल संभवहि । अणवरय सो गरे तिरि- एसु संचरइ । जे सज्जण-भण गायणा- गंदण | मुणि भासिय परवय आवज्जिय । सन्तुष्ट हैं, मान नहीं है और दर्प नहीं है, जिनके ज्ञान तीनों लोक गोपद समान आकार वाले हैं। यद्यपि आप निर्ग्रन्थ हैं । तो भी आगम ग्रन्थों (शास्त्रों) में रुचि वाले हैं अर्थात् आप शास्त्रों के समस्त अर्थों में पारगामी है। हे प्रभो, हमें शीघ्र ही कुछ प्रायश्चित दीजिए, जिससे आपके चरणों की भक्ति कर सकें । तब मुनिराज ने अपने मन में उन्हें आसन्न भव्य जानकर अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतों को सुवचनों द्वारा समझा कर प्रदान किया। वे भी आदरपूर्वक मन, वचन, काय से उन्हें स्वीकार कर माता-पिता के साथ अपने घर पहुँचे । (४) अ त 2. अ. 'उ। माता-पिता ने पुनः कहा--"जो व्रतभार ग्रहण किया है उनका पालन करते हुए भी द्विजकुल के विहित - आचार को मत छोड़ो।" इस बात को सुनकर अग्निभूति-वायुभूति ने पुन: कहा – “भुवनतल में यह कहीं भी सम्भव नहीं है अर्थात् आपके कथन की पूर्ति सम्भव नहीं । जिनेन्द्र कथित तथा मुनिराज द्वारा प्रदत्त व्रत नियमों का जो पालन नहीं करता वह निरन्तर ही तिर्यंचगति में संचरण करता रहता है। " घत्ता - पुनः माता-पिता, परिजनों एवं अन्य अनेक लोगों ने उन्हें मनाया - समझाया, तो भी वे नहीं माने। वेद कथित तथा उसके जो कुछ भी फल हैं उन सभी का उन द्विज-पुत्रों ने अवगणन किया ।। 75 ।। (9) ( प्रद्युम्न के पूर्व - जन्म - कथन के प्रसंग में ) सोमशर्मा की रत्नप्रभा में उत्पत्ति तब माता-पिता ने सज्जन जनों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देने वाले उन दोनों नन्दनों को छोड़ दिया । उन पुत्रों ने भी तात-मात को छोड़ कर मुनि-भाषित उत्तम व्रतों को अंगीकार किया । (8) (1) उगमा कल्यदीन (2) प्रायश्चित् । (3) ऋणमात्रेण (4) सनस्तानि ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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