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5.8.1]
महाकद सिंह विरइउ पञ्जुण्णचरिउ
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झाणु खमाविवि ताम मुणिदें भणिउ जक्खु हय-भव-भय-कदें । भो-भो मुटठ भरा रणे मटण उक्खिल्लहि बिण्णिवि दिय-णंदण ताम जक्खु णर-रूउ धरे विणु मुणिणाहो कम-कमल णवेविणु। पभणई साहु-साहु संजमधर तुहुँ णिय-संगु जाहि स्खम-दयपर । आयहँ मइँ णिग्गहु जि करेव्वउ भाइ-जुअ वि जम-पंथइ णेब्बउ। पुणु खम-दम-दयवंतु पयंपइ
मा दिय बहहि मज्झमण कंपई। ए सामण्ण ण हुंति मुणैव्वउ आयह वर बउ णियमु "कुणेव्वउ । ए णिच्छउ दूरोसारिय तम होएसहिं सागरपवग्ग खम।
ता जक्ख ते मुक्क तुरंत वर कंकण-मणि-मउड फुरंत। पत्ता- पुणु मुणि कम-जुवले हय-पाद मले परिलुढिर पघोसहिं दिअ-सुअ।
अम्हं होंतु बहु तुम्हइँ ण' पहु ण घरंत तो जक्ख खग्गइँ 'मुअ ।। 74 ||
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अम्हदं पाविठ्ठ-दप्पिट्ठ-णिक्किह
तुह हणणे संपत्त णिसि समय णिरु दुछ।
कर दिया। फिर पूरा ध्यान होने पर भव-भय के मूल के नाश करने वाले मुनीन्द्र ने पक्ष से कहा—“दुष्ट जीवों को रण में मर्दन करने वाले हे यक्षदेव, दोनों ही द्विज नन्दनों को उत्कीलित करो।" (अर्थात् छोड़ दो) तब यक्ष ने मनुष्य का रूप धारण कर मुनिराज के चरण कमलों को नमस्कार किया और बोला--"हे संयमधारी सच्चे साधु, हे क्षमा, दया में तत्पर साधु आप अपने मुनिसंघ में जाइये, किन्तु मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं इनका निग्रह करूँ और भाई युगल को यम के पन्थ को ले जाऊँ ।"
पुनः क्षमा, दम एवं दयावान् मुनि ने कहा- "मेरा मन काँपता है। इन द्विजों का वध मत करो। ये द्विज सामान्य नहीं हैं—ऐसा जानो। ये आगे चल कर उत्तम व्रत-नियम (धारण) करेंगे। ये दोनों निश्चय से तम (मिथ्यात्व) रूपी अज्ञान को दूर हटा कर स्वर्ग-अपवर्ग जाने में समर्थ होंगे। तब उत्तम कंकण, मणिमयमुकुट से स्फुरायमान उस यक्ष ने उन दोनों को तुरन्त छोड़ दिया। पत्ता- पुन: द्विज सुत जय प्रघोषों के साथ पापमल को दूर करने वाले मुनिराज के क्रम युगल में लौटने लगे,
और बोले- "हे प्रभो, हमारा वध होने से तुम्हीं ने बचाया है। नहीं तो, यक्ष खड्ग से मारे बिना नहीं छोड़ता।। 74 ||
प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) मुनिराज के समीप द्विजपुत्रों ने व्रतभार धारण किया । हम पापिष्ठ हैं, दर्पिष्ठ हैं, निकृष्ट हैं। तुम्हारे हनन के लिए अत्यन्त दुष्ट हम लोग रात्रि समय में यहाँ आये थे। हे स्वामिन, आपके माहात्म्य की उपमा हम किससे दें। जिन्हें रोष नहीं है, (प्रत्येक परिस्थिति में जो सदा)
2.ब. धम्णुि । 3. अ करेवड़। 4. ज. नि न्हु । 5. 4. सु ।
(7) (1) दुष्टभूतः । (2) वधः ।