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________________ 82] 5 10 महाकम सिंह विरह पज्जुष्णचरिउ (6) 2.3 FRI (7) अ । अहवा जइ ण मिच्चु किर पावमि जा मज्झइ मुणि इउ चिंतंत एम ताह णिसि सयल विहाणिय थट्ट थक्क पीडिय -मह-कट्ठइँ तो पियरहँ पुणु सिट्ठउ कवणें एत्यंतरे धाइय पिउ-माघरि पत्ता- कय-करवाल-कर वर रूवधर मुणि दोवास हुउ अग्गिलहि सुअ (7) सूरुगामे तो झाणु खमावमि । अप्प - अप्पसरून नियंतउ । ता पच्चूसहिं लोहिं जाणिय । अलि सुवर्णे णिम्मिय कट्ठइँ । सिहि - मरुभूइ वि कीलिय सवणें । पांदण मरण-भयइँ हुव कायरि । णं सेवय तिहुवण चंदहो । णमिवि णमिवआइ जिणेंदहो ।। 73 11 पेछिवि णंदण अणिमिस-लोयण मुणि-कम- मोतोल भहिं बेवि मुणि एत्तिउ किज्जउ तुहुँ किर संतु जीव-दयवंत ताय- माय परिवट्ठिय सोयण । विकतइँ । दण- भिक्ख अम्ह पहु दिज्जउ । रक्खहिं बडूव 'दोवि उवसंतउ । [5.6.4 के उद्गम होते ही ध्यान खुलने पर मैं उन दोनों को क्षमा करा दूँगा ।" मुनिराज जब इस प्रकार का चिन्तन कर रहे थे और अपने से अपने स्वरूप को देख रहे थे। तभी, कीलित हुए उन दोनों की समस्त रात्रि बीत गयी, प्रातः काल में जब लोगों ने यह जाना कि अग्निला के दोनों पुत्रों (अग्निभूति एवं वायुभूति) ने मुनिराज को महान् कष्ट दिया है, तब सभी लोग बड़े पीड़ित होकर वहाँ इकट्ठे हुए। उसी समय किसी ने पुत्रों के माता-पिता को बताया कि भ्रमण मुनि ने शिखिभूति एवं मरुभूति को कीलित कर दिया है, तब वे दौड़े और अपने पुत्रों के मरण के भय से कातर होने लगे । घत्ता— हाथों में तलवार धारण किये हुए अग्निला के वे दोनों सुन्दर पुत्र ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानों त्रिभुवन के लिए चन्द्रमा के समान उन मुनिराज के दोनों और दो सेवक (खड़े) हों और उन्हें नमस्कार कर आदि जिनेन्द्र को नमस्कार कर रहे थे ।। 73 11 'यक्षराज विप्र-पुत्रों को (7) (प्रद्युम्न के पूर्व - जन्म - कथन के प्रसंग में- } मुनिराज के आग्रह क्षमा कर देता है। अनिमिष लोचन (टिमकार रहित नेत्र वाले ) नन्दनों को देखकर तात-मात दोनों शोक से भर गये। अग्निला और सोमशर्मा दोनों ही कान्ता एवं कान्त (पत्नी - पति) मुनिराज के चरण कमलों पर लोट गये और दोनों ही कहने लगे कि – “हे मुनिराज इतना कीजिये। हे प्रभु नन्दन की भिक्षा हमें दीजिये। तुम निश्चय ही सन्त हो, जीव दया करने वाले हो तथा उपशान्त हो, हमारे दोनों बटुकों की रक्षा कीजिये तब मुनीन्द्र ने ध्यान में क्षमा
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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