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________________ 80] महाका सिंह विरइज पशुण्णचरित [5.4.2 पणवेवि दिवद्धणहो पाय पभणिउ गुरु महो णिसुणेहि वाय। अहिमाणिउ-मई विष्पयणु जं जि पच्छित्तु कि पि महो दहि तं जि। गुरु पभण' तं णिसुणेवि कज्ज पइँ माराविहु एहु संघु अज्जु । तो वरि तुहुँ फुडु एति'उ करेइ जहिं ते जिय तहिं विवसग्गु देहि । ताणंतरे सो सच्चइ मुणिंदु जाइवि तहि ठिउ णं गिरि वरिंदु। एत्तहि सोमेण स सुअ भणिय माणुव-वेसई मई पसुअ जणिय । जइ सस्थई ते तुम्हहँ ण जिणहु तो णिसि असि-पहरहिं किण्ण हणहु । घत्ता— तहिं ते 'भडई खणे तहिं विहिमि मणे पिउ-वयणु णिरारिउ भाविय । ___ णिसि असि-दुहियपर करवाल-कर मुणिसंघहो हणण पराइय।। 71 ।। (5) ताम मुणीसरु हय वम्मीस। पंथि अमूढिड झाणारूट। सो तहिं दिउ जंपिउक्किाउ। भो कि पवरहिं घाएहिं अदरहि। । जेणें परिहा किउ सा उब्भउ ठिउ। 10 के चरणों में प्रणाम कर बोले-“हे गुरो, मेरे वचन को सुनिए-."मैंने जो आज विप्रजन को अपमानित किया है, उसका मुझे कुछ भी प्रायश्चित दीजिये।" उस कार्य को सुनकर गुरु ने कहा-"तुमने आज इस संघ को मरवा दिया। तो भी अब तुम्हें स्पष्ट रूप से ऐसा करना चाहिए। तुमने जहाँ उनको पराजित किया है वहीं पर व्युत्सर्ग (काय से ममत्व छोड़ कर) तप करो।" __तदनन्तर वह सात्यकि मुनीन्द्र उसी स्थल पर गिरीन्द्र के समान खड़े हो गये और इधर सोम ने अपने उस पुत्र से कहा-"मनुष्य के वेश में मैंने तुम जैसे पशुओं (अज्ञानियों) को जन्म दिया है। यदि शास्त्र के बल से तुम उसे नहीं जीत सकते तो रात्रि में असि-प्रहार कर उसे क्यों नहीं मार देते?" पत्ता- तब वे दोनों भट्ट पुत्र क्षण भर में ही पिता के वचनों को नि:शंक रूप से विचार कर हाथों में छुरी एवं तलवार धारण कर रात्रि में उस मुनि-संघ को मारने के लिए प्रस्थान करते हैं।। 71 ।। (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म-कथन के प्रसंग में-) गुप्त यक्षदेव मुनि-हत्या के लिए प्रयत्नशील अग्निभूति-वायुभूति को कीलित कर देता है तब कामदेव को नष्ट करने वाले अमूढ़ (मूढ़ता रहित -- अज्ञान रहित) ध्यानारूढ़ उन उत्कृष्ट मुनिराज को (उन विप्र पुत्रों ने) मार्ग में देखा और (परस्पर में) कहा-"अरे क्या देर लगाते हो? इसी को मारो, कोई भी यहाँ नहीं देख रहा है (अब) क्या देखते हो, मारकर भाग चलो।" (4) 1. अ. "रिसु। 2. अ. उ'। 3. अ. त* | 4. ब. भ.। (4) (1) निजगृहे (5) (1) मार्गे दृष्टा।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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