SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाका सिंह विखउ पण्णचरित [5.1.17 हरि विप्प सुउ थिर थोर भुउ। अवरु बिणि वा गोमाय-छवा। दक्खालिय सुणिहालय।। घिण कय मणउ हरि दिय तणउ। घत्ता..... सो जइणा भणिउ पुत्ते जणिउ जं तेण काइँ तुह लज्जहिं । भो-भो पवर-दिय सावित्ति पिय किं पुवा वियाणिवि भज्जहि ।। 68।। (2) संसारे भमंतउ जीउ एहु भवे-भवे उप्पाइय अण्ण देहु । इय जाणिवि चित्ते म करि वियप्पु वप्पो वि पुत्त पुत्तो वि वप्पु। जाया वि माय माया वि जाय भायर इइरिय अरियण वि भाय। रे मूह म मूढ'त्तणु पयासि जंपहि ण काइँ जं हुउउ आसि । तं णिसुणेवि सो भुणिणाह वयशु पडिजंपइ वाहुल्भरिय णयणु। भो-भो परमेसर दिव्व-वाणि । तुह सरिसु ण दीसइ को वि णाणि । हउँ-पवरुज्ज आसि सियालयाहँ इह सा दृरुव मई संगहिय ताहूँ"। घता- मूअत्तणु मुअ वि पुणु-पुणु रूववि मुणि-चरण-जुबले सो लग्गउ। पभणइ सामि महो वउ देवि लहु संसार-दुक्स्त्र हउँ भग्ग।। 69।। (शृगाल) के शव भी वहाँ दिखाये गये। सबके द्वारा देखे गये। हरि द्विज का वह पुत्र अपने मन में घृणा करता हुआ मौन बना रहा। घत्ता- तब यति ने उससे कहा- "तू अपने पुत्र से जन्मा है किन्तु इससे तू लज्जित क्यों हो रहा है? सावित्री (माता) के प्यारे भो भो प्रवर द्विज, पूर्व-जन्म को जानकर भी भाग रहे हो।। 68 ।। (प्रद्युम्न के जन्मान्तर कथन के प्रसंग में-) मूक विप्र पुत्र (प्रवर विप्र के जीव) को धर्मोपदेश "संसार में भ्रमता हुआ मह जीव भव-भव में अन्य-अन्य देह पाता है। ऐसा जानकर चित्त में विकल्प मत करो बाप भी पुत्र हो जाता है और पुत्र भी बाप हो जाता है। स्त्री भी माता होती है और माता भी स्त्री हो जाती है। भाई बैरी हो जाता है और अरिजन भी भाई हो जाता है। "रे मुढ, अब मुकपने को प्रकाशित मत कर। बोलता क्यों नहीं? जो था वही बन।" मनिनाथ के वचन सुनकर नेत्रों में अश्रु भर कर वह बोला--"भो-भो परमेश्वर, हे दिव्य-वाणि, आपके समान कोई जानी दिखाई। नहीं देता। मैं ही प्रवर था। मैंने ही उन दोनों गालों के शव को संगृहीत किया था। धत्ता- मूकपना छोड़कर वह द्विजपुत्र बार-बार रोता हुआ मुनि के चरणों में गिर पड़ा और बोला, “हे स्वामिन् मुझे संसार के दुःखों को भंग करने वाले व्रत शीघ्र दीजिए ।। 69 ।। (1) (4) किं पूर्व विजनेपि मासे यस्मिन् प्रतावे इति उक्त प्रथा शाल मारिती। (2) I. 'य। (2) या तों।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy