SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5.1.16]] मडाकद सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित 177 पंचमी संधी पुणरवि भणइ मुणि सिहिभूइ सुणि परिणइ संसारहों केरिय। पयडमि पवर-कह रंजिय सु-सह जा जणे' अच्चरिउ जणेरिय।। छ ।। इह गाम ठिउ सो पवर-दिउ। वरिसद्ध मुओ सुण्ह' हवि सुओ। कम्मेण हुउ पुण्णे सुपङ। सपुत्तई जणिउँ सो वलि भणिउँ। अछइ पबरे हरि-विप्प-घरे। मणि लज्जियउ सर-वज्जियउ। चवई ण वयणु सुहि मय-णयणु। मूओ) वि भणइ एरिसु मुणइ। तह वालियहँ सियआलियाँ। छव तहिं णिलए ण विगय विलए। अज्जु वि रहिया जा तेण गहिया। तं मुणि-वयणु सो विप्पघणु। णिसुणेवि तुरिउ विभय भरिउ। मुणि जाणियउ तहिं आणियउ। 10 पाँचवी सन्धि (प्रद्युम्न के पूर्व-जन्म के प्रसंग में-) प्रवर विप्र मरकर अपनी पुत्र-वधु की कोख से जन्म लेता है पुनः उन सात्यकि मुनिराज ने कहा—"हे शिस्त्रिभूति, सुनो अब मैं संसार की परिणति सम्बन्धी सुसभा रंजित करने वाली तथा लोगों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाली प्रवर कथा को प्रकट करता हूँ।। छ।। इसी ग्राम में प्रवर नामका वर द्विज वर्ष के अर्द्ध भाग में मरा और पुण्य कर्म से अपनी पुत्रवधु से उत्पन्न हुआ। अपने ही पुत्र से उत्पन्न (पिता का जीव) वह बलि नाम से पुकारा गया। वह प्रवर (विप्र इस समय) हरि-विप्र के घर में है। वह मन में लज्जित स्वर वर्जित (गूंगा) कुछ भी बोलता नहीं । सुखी तथा मृगनयन वाला वह मूक होकर भी बोलता है, ऐसा जान पड़ता है। उन शृगाल बालकों के शव उसके घर में हैं, वे विलय को प्राप्त नहीं हुए हैं। जो उसने पकड़े थे वे आज भी रक्षित हैं। मुनि-वचनों को सुनकर वे विप्रजन विस्मय से भर गये। मुनि द्वारा बताया गया स्थिर मोटी भुजा वाला हरि विप्र का वह पुत्र वहाँ ले आया गया और जीर्ण गोमायु 1) I. 4. । 2-1. अ. प्रति में इतना अंग नहीं है।। 4. तुआ। (10 (1) वधु उदरे पुत्रो लात.। 2)स्वकीय: पुण। 3) यूकः इव ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy