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महाकद सिंह पिरहउ पज्जुण्णचरिउ
[4.17.15
सत्त-दिवह दरिसेवि जलु थक्कर ताम पवस) णिय छत्तहे ढुक्कल। हलु-णाडउ वि णिहालइँ जामहिं वाल-सियाल वेवि मुअ तामहि ।। पेछेवि णाडउ खडु "मुणेविगु । पुणु असि-दुहिय करम्में करे विणु तो गोमाय बेवि परिफालिवि गाडय-खंडइँ उबरे णिहालिवि। अप्पाणहो वारह डिम जाणिय ताहमि छव णिय-णिलयहो आणिय । पुणु पयडइ अप्पण्णउ पवाडउ पेछहो पेटहो कड्ढिउ णालउ । छवमइँ लय सियालइँ मारेवि सिर-चरणोदंगई पवियारेवि ।
णयण-वयण णिज्जिय ससि हरिणि हे सोमसम्मा दियवर-वर घरिणि । घत्ता- ते तुम्हइँ उपाण्ण अग्गिभूइ-मरुभूइ सुब।
___ आयम-वेय-पुराण बिग्णि बि जगे सुपसिद्ध हुआ।। 67।। इय पज्जु १६ । पयडिल-मत-कानगोसा, का शिव रिइयाए 'अग्गिभूइ-मरुभूइ उप्पत्ति वण्णणो णाम चउत्थी संधी परिसमत्तो।। संधी: 4।। छ।।
सात दिनों की वर्षा के पश्चात् (जब) जल रुक गया, तब (वह) प्रवर विप्र अपने क्षेत्र में आया । जब (उसने) नाड़ वाला हल देखा तभी वहाँ मरे हुए उन दोनों बाल-शृगालों को भी देखा । उनको देखकर तथा उन्हें नाडा खाया हुआ जानकर प्रवर विप्र ने असिदुहिता (छुरी) को कर में लेकर उससे उन दोनों गोमायु (शृगालों) को फाड़कर उनके पेट में नाड़ा के खण्ड देखे। ___वह प्रवर विप्र अपने द्वार पर लटकाने योग्य जानकर उन शृगाल बच्चों के शवों को उठा कर अपने घर ले आया। फिर अपने प्रवाद को प्रकट किया और उनके पेट से नाल निकाल कर (सबको) दिखाई। उन मरे हुए भृगालों के सिर, चरण आदि उपांगों को विदार कर उनके शवों को लटका दिया। अपने नेत्रों एवं वदन-मुख से हरिणी एवं चन्द्रमा को जीतने वाली सोमशर्मा द्विजवर की घरिणी (पत्नी) से---- घत्ता- उत्पन्न तुम दोनों (उसी शृगाली के पूर्व-पुत्रों के जीव हो) वही अग्निभूति, वायुभूति पुत्र हो, जो
जगत में आगम, वेद एवं पुराण में सुप्रसिद्ध हो ।। 67 ।। इस प्रकार धर्म-अर्थ-काम एवं मोक्ष को प्रकट करने वाली कवि सिद्ध द्वारा विरचित्त प्रद्युम्न-कथा में । अग्निभूति-मरुभूति की उत्पत्ति सम्बन्धी चौथी सन्धि समाप्त हुई।। सन्धि: 4।। छ।।
(17) (3) प्रवरोनामविप्न । (4) तौ हौ गली । (59 उमंग विदारमिला।
(1792.3 'स। 3. अ स्खे'। 4. अ. भ३मिणु। 5.अ. करेजिए।
6. अ. "व। 7-8.3x |