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________________ F.15.13] 5 10 महारुद्र सिंह विरइउ पज्जुण्णचरिउ (15) वत्थु - छंद – णंदिवद्धउ णाम भवहरणु आनंदिय भव्वणु मिलि णिएवि जो जगे अकुछिउ । कोहलु" काइँ पहु जणु जुजाइँ कहिं दियहं (2) पुछिउ | ता केणवि तहि वज्जरिउ जिण तव मुणि संपत्त । पय- पंकय भत्त । । छ । । सिहिभूइ - वाइभूइ वि सुपुत्त । गइ जण विहाणहो जेहि हणिय । 'णीसार होइ इह महो' वयणु सुणेवि । सुइ-गाणें दूरे चवंत सुणिय । पुणु अद्धंतरे तउँ गपि मिलिउ (")। ता तेहिं तासु उवहसिय- वाय किं ण मुहिं सो बहुगुण समिद्धु । किं पुछहिं अण्णाणिहिं महंत | ते दीसहि जे दुग्गे थिय तह तो सोमसम्म (4) दिय- वरेण वुत्त ए - सत्थ अपमाणा भणिय मीमंस तक्कवाएण जिणेवि सच्चई ” मुणिणा तावें ल मुणिय तर्हि अवसो सम्मुहउँ चलिउ पुच्छिय दियवर कत्थ होनि आय एहु सालिगाम - भुवाहो पसिद्धु तहो होति णिहालवि णीहर [73 (15) प्रद्युम्न का पूर्व - जन्म - कथन (2) मुनिराज सात्यकि एवं द्विजवरों का विवाद वस्तु - छन्द — उन मुनिराज का नाम नन्दिवर्धन था । भव (संसार के दुःखों) के हरने वाले तथा संसार में अकुत्सित (अनिन्दित ) थे। आनन्दित भव्यजनों को मिला हुआ देखकर उन द्विजों ने पूछा कि मार्ग में क्या कौतूहल है ? यह जन कहाँ जा रहे हैं? तब वहाँ किसी ने उन्हें बताया कि "यहाँ जिन-तपस्वी-मुनि आ पहुँचे हैं। वे दुर्ग में स्थित हैं । उनके चरणकमलों के भक्त जाते हुए दिखायी दे रहे है । । छ । । तब सोमशर्मा द्विजवर्मा ने शिखि (अग्नि) भूति, वायुभूति नामक अपने दोनों पुत्रों से कहा- "ये मुनि वेदशास्त्र को अप्रमाण कहते हैं। जिन विधान से जिन्होंने सभी का स्वण्डन किया है। तर्कवाद से मीमांसकों को जीता है। मेरा वचन सुनो। ये निःसार (बेकार ) होते है (अर्थात् इनके पास जाना व्यर्थ है ) ।" जिन तपस्या से तप्त सात्यकि मुनि (जो सब वेद के ज्ञाता थे) ने अपने श्रुत ज्ञान द्वारा दूर से बोलते हुए उन विप्रों को सुना । तब अवश होकर वे ( सात्यकि मुनि) उनके सन्मुख चले। आधी दूरी पर ही उनका आमना-सामना हो गया। तब उस मुनि ने द्विजवरों से पूछा - " आप कहाँ से आये हो।" तब उन्होंने (विप्रों ने) उन पर हास्य-बाण छोड़े और कहा कि"क्या तुम अनेक गुणों से समृद्ध एवं जगत् में प्रसिद्ध शालिग्राम को नहीं जानते ? वहाँ से निकलते आते देखकर भी अन्य क्या पूछते हो? यह पूछना बड़प्पन नहीं है । " (15) |, अ. जे | 2-3, 1 नीसारहु मडु इन 4 अ मु' (15) (1) कोहल | (Z) विप्रेण । (3) दिगंबरा । (4) सोपसर्मण: (5) सत्यगि गोमुनिना । (6) स्था । ( 7 ) तयोः विप्रपुत्रयो । (8) भूत्वा ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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