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________________ ----------- 4.12.8] महाफइ सिंह विउ पज्नुण्णचरित [69 15 जय सत्तभंगि बहुविह पमेय) पई भासिय समयाणेय भेय ।। घत्ता- जय परमणिरंजण-परमपहु मोक्ख-महापय-गामिय । जय-जय केकाणाण-घर सिरि-पीमंधर-सामिय।। 61।। (12) वत्थु-छंद- ता चक्केसरु णिहेवि तहो रूउ अइसुहुमु करयले करेवि मणे विभिउ 'पुणु अरु हु पुंछइ। परमेसरु कवणु यहु कहिं तणउ महु करिज्जु अच्छइ।। कइह जिणेसरु राय सुणि जो तिहुवणे सुपसिद्ध। भरहखेत्तु णामेण जय" धण-कण-रयण समिद्ध।। छ।। तहिं अत्थि सोरट्छु णामेण वरविसउ(2) जहिं तरुण णिप्फलु वि सरवर ण णिव्विस। पुरि णाम वारमइ तिक्खंड महिपालु वलहट्टु सकणिठु दुठ्ठारि-गण-कालु । तहिं अस्थि महुमहणु णामेण वर राउ रिउ-सेल सिहरम्मि सोदामिणी घाउ। करने वाले आपकी जय हो। आपने समय-मतों के अनेक भेद भाखे हैं। ऐसे आपकी जय हो। घत्ता- परम निरंजन मोक्षमहापथगामी परमप्रभु आपकी जय हो। केवलज्ञानधारी श्री सीमन्धर स्वामी आपकी जय हो।। 61 ।। (12) नारद का सूक्ष्म-शरीर अपनी हथेली पर रखकर चक्रेश्वर-पद्म जिनवर से पूछता है कि यह प्राणी कहाँ से आ गया है? वस्तु-छन्द-तब चक्रेश्वर—पद्म उस नारद का अतिसूक्ष्म रूप देखकर तथा उसे अपने करतल में रखकर मन में विस्मित हुआ और उसने प्रभु के चरणों में नमस्कार कर पूछा "हे परमेश्वर, यह जो मेरे कर (हाथ) में स्थित है, यह कौन है और कहाँ का (जीव) है?" जब जिनेश्वर बोले "हे राजन् सुनो। त्रिभुवन में जो भरतक्षेत्र नाम से सुप्रसिद्ध है, जो कि धन-कण एवं रत्नों से समृद्ध है।। छ।। उसी भरतक्षेत्र में सोरठ नामका एक समृद्ध देश है, जहाँ के वृक्ष कभी निष्फल नहीं होते और विशाल सरोवर कभी भी जलरहित नहीं होते। वहाँ द्वारावती नामकी एक पुरी है। वहाँ तीन खण्ड का महीपाल (राजा) बलभद्र दुष्ट शत्रु-गणों के लिए काल के समान अपने छोटे भाई (कृष्ण) के साथ निवास करता है। वहाँ मधुमथन (कृष्ण) नामका लोकप्रिय राजा है, जो शत्रु-रूपी पर्वत-शिखर के लिए सौदामिनी के घात के समान है। उस भरतक्षेत्र में होकर यह (सूक्ष्म प्राणी) यहाँ आया है।" (यह सुनकर) नरनाथ पद्म ने पुनः पूछा-"क्या यह युक्त घटित होता है कि भरतक्षेत्र के ऐसे लघु मनुष्य का आगमन यहाँ हो?" तब देव ने पुन: उत्तर (11) {I) प्रमाणीभूत । (12) (1) जाति। (2) देस। (3) जलरहितः । (12) 1.ब सु। 2. च. 'क' | 3. ब. ' ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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