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________________ 681 महाका सिंह विरइउ पणुपणचरित [4.11.1 वत्थु-छंद-.-. जक्ख-विंतरदेव भुक्णयले जसु सेव अणु-दिणु करहिं थुणहिं वंदेिवंदहि णिरंतरु । जणु तणउँ जसु पसरियउ सग्गे-मत्ते-पायाल भितरु ।। समवसरणु सो' जिणवरहो हि सठिउ गरमाहु। पुछइ धम्माहम्म-फलु सुरकरि-कर-समवाहु ।। छ।। परमेटिङ सहिउ तं समवसरण पइसरमि स-दुक्किय कम्म-हरणु। पणवेबि ति भांमरि देवि जिणहो थुइ करइ विवज्जिय-दुरिय-रिणहो। जय मयण-हुपासण-पलय-मेह दह-अह्रदोस परिमुक्क-देह जय अणह-अरह-अरहंत-दंत जय मोक्ख-महासिरि-देवि कंत । जय फणि-णर-सुर कय पाय सेव जय परम निरंजण देव-देव। हरियासण-भामंडल-असोय जय-दुंदुहि-सर विभिय तिलोय । जय कुसुम-पस र सिय णहहो अमर जय-जयहिं ढलिय चउसठ्ठि चमर। (11) पूर्व-विदेह क्षेत्र स्थित सीमंधर स्वामी के समवशरण में पहुँच कर नारद उनकी स्तुति करते हैं वस्तु-छन्द— भुवनतल में यक्ष एवं व्यन्तर देव जिसकी प्रतिदिन सेवा किया करते हैं और बन्दी वृन्द जिसकी निरन्तर स्तुति किया करते हैं और जिसका (चक्रवर्ती) यश स्वर्ग, मर्त्य और पाताल लोक के भीतर फैला हुआ था। ऐसा वह ऐरावत हाथी की सूड के समान बाहुवाला नरनाथ राजा पद्म वहाँ बैठा हुआ था, जहाँ जिनवर का समवशरण था। वह उन जिनवर से धर्म-अधर्म के फल को पूछ रहा था।। छ।। "अब मैं अपने दुष्कृत कर्मों को नष्ट करने के लिये परमेष्ठी का उच्चारण कर उस समवशरण में प्रवेश करता हूँ। इस प्रकार विचार कर वह नारद दुरित ऋण (कर्मों) से रहित जिनेन्द्र को प्रणाम कर तीन भ्रामरी (प्रदक्षिणा) देकर स्तुति करने लगा—"मदन रूपी हुताशन को शान्त करने के लिए प्रलयकालीन मेघ के समान आपकी जय हो। अठारह दोषों से रहित शरीर वाले आपकी जय हो। हे अनघ, अनन्तानुबन्धी आदि कषायों का हनन करने वाले (तथा मोहनीय कर्म से रहित), हे अरह (-रहस्य अन्तरायकर्म रहित) हे दान्त–(इन्द्रिय विजयी) अरहन्त आपकी जय हो, मुक्ति रूपी महालक्ष्मी देवी के कान्त आपकी जय हो। जिनके चरणों की सेवा फणी, नर और सुर किया करते हैं, ऐसे आपकी जय हो। परम निरंजन देवों के देव, आपकी जय हो, अष्ट प्रातिहार्य में सिंहासन, भामण्डल-छत्र एवं अशोक (तर) जिनके हैं, ऐसे आपकी जय हो। दुन्दुभि स्वर से त्रिलोक को विस्मित कर दिया है, ऐसे आपकी जय हो। देवों द्वारा आकाश से जिन पर पुष्प-वृष्टि की जाती है, जिन पर चौंसठ चमर ढोले जाते हैं, ऐसे आपकी जय हो। सप्तभंगी रूप दिव्यध्वनि के द्वारा बहुविध प्रमेयों को प्रकट (1) I. अ. गे: 2. ब. कः। 3. अ.हे सुउ। 4.4. से। 5. अ. अमेय ।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
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