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4.10.18]
महाका सिंह विराउ पज्जुष्णचरिउ
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एउ चिंतेवि वोमभाई चलिउ णं सूरु-तूलु पवणहो मिलिउ। णंदण-वण-घण-कीलर विसउ ता णियइ पोक्खलावइ विसउ। दाहिणयडे सीय-महाणइहे।
करि मयक्त-वच्छ कीलण-रइहे। जहिं अमरविमाणहो उयरेवि तिविहे णवि तिपयाहिण करेवि। तहिं भव्व विविह सिय-सउहयरि पइसरइ पुंडरिकिणि-णयरि । पुवाण-कोडि जणु जियइ जहिं अंतरे मिच्चु वि कासु वि ण कहिँ । धणु सइयं-पंच उछेह तणू
जहिं पोम-तेय-सिय लेस मणू। तित्थंकर-हलहर-चक्कहर
उप्पज्जहिं जहिं सुपसिद्ध गर । पोमाणणु-पोमालंकरिउ
पय-पोम दिवायरुव्व फुरिउ। तहिं वसुह छखंडहिं गहियका चक्केसर-पउमु णामु पवरु।
जसु रयण-चउद्दह णव-णिहाण णेसप्पाइय-पिंगल-पहाण। घत्ता- पिय जिउ जा सश मुरंगह।
लक्खहँ-चउरासिय वि तुंग मत्त-मायंगहँ ।। 60 ।।
—ऐसा विचार कर वह आकाशमार्ग से वहाँ के लिए चला। ऐसा प्रतीत होता था मानों आकवृक्ष की तूल (रुई) ही पवन से मिल कर व्योम भाग में चली गई हो। जहाँ अनेक नन्दनवन विविध क्रीडाओं के विषय हैं। वह नारद सर्वप्रथम सीता महानदी के दक्षिण तट पर स्थित उस पुष्कलावती देश को देखता है, जो हाथी, सिंह, मृग जैसे पशुओं की क्रीड़ा-रति का स्थान है, जहाँ देवगण अपने विमानों से उत्तर कर मन-वचन-काय से जिसकी तीन प्रदक्षिणाएँ करते हैं। नारद मुनि ने उस देश की भव्य एवं विविध शुभ्र वर्गों के सौध वाली पुण्डरीकणी में प्रवेश किया। जहाँ के जन एक पूर्व कोटि तक जीते हैं (अर्थात् उनकी एक पूर्व कोटि की आयु है)। जहाँ बीच में किसी की भी मृत्यु (अकाल मृत्यु) नहीं होती। शरीर का उत्सेध (ऊँचाई) 500 धनुष का है, जहाँ पद्मलेश्या, तेजो (पीत) एवं सित (शुक्ल) लेश्या वाले मनुष्य ही होते हैं और जहाँ सुप्रसिद्ध मनुष्य, तीर्थंकर हलधर, चक्रधर उत्पन्न होते रहते हैं। वहाँ छखण्ड वसुधा से कर ग्रहण करने वाला कमल-मुख, पद्मा लक्ष्मी से अलंकृत, कमल के समान चरण वाला स्फुरित (चमकते हुए) दिवाकर सूर्य के समान पद्म नाम का प्रवर चक्रेश्वर हुआ, जिसे 14 रत्न, और पिंगल प्रधान नैसदिक नौ निधियाँ प्राप्त थीं। धत्ता- जिसके नौ के दूने अर्थात् 18 कोड़ि घोड़ों की संख्या थी। जिसके 84 लाख तुंग मत्त मातंग हाथियों
की संख्या थी।। 60 ।।
(10) (1) आकासे । (2) अतूल। (3) सौध-मंदिर।