SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाक सिंह बिरगत पम्जुष्णचरित [4.9.10 *सिरु इल लाइवि किय वंदणहिं सुय-सोय विउयंतहि जि तहे। सो एम भणेविणु णीहरिउ णह-मग्गइ मंदिर गिरि तुरिउ । गउ तहि-जहिँ थियई अकित्तिम. जिण-भवणइँ णिरु तिजगुत्तम.। भव-भय संचिय दुक्किय-हरइँ वंदिवि धुणेवि चेई हर। तहि चिंत. पुणु मुणि मणेण एम उवलंभु लहमि तहो तणउँ केम । पुर-गाम-खेड-कव्वड-अबले | गोसाइ अनाणियते । सिरिविजय राय सिवण-वहुओं जो अच्छइ णेमिकुमारु सुओ। घत्ता- सो जिणु वावीसमउँ चरम-सरीरु णिरुत्तउ। अण्णु ण दीसइ कोवि तिहिं णाणिहिं संजुत्तउ ।। 59 ।। (10) वत्थु-छंद- पर ण अज्जवि तासु णिक्खवणु ण वि केवलणाण किर छद्दमत्थु किम कहइ पुच्छिउ। रिसि णारउ ता एम मणे चिंतवंतु खणु एक्कु अच्छिउ ।। पुणु उप्पणु विवेकि तसु पुष्व-विदेहहिं जामि। समवसरण तित्थयरु जहि सिरि सीमंधरु सामि।। छ।। ने अपना सिर पृथिवी पर लगाकर मुनि की वन्दना की। हे तुम जियो, नारद मुनि ऐसा कहकर राजभवन से निकले और आकाश-मार्ग से शीघ्र ही उस मन्दरगिरि (सुमेरु पर्वत) पर गये, जहाँ तीनों लोकों में अत्यन्त श्रेष्ठ अकृत्रिम जिनभवन स्थित हैं। भव-भव के संचित सैकड़ों दुष्कृतों को हरने वाले चैत्यगृहों की वन्दना स्तुति कर वे वहाँ मन में ऐसा विचार करने लगे कि-"रूपिणी के तनय की उपलब्धि कैसे करूँ? पुरों, ग्रामों, खेड़ों. कर्वटों (पर्वतीय प्रदेशों), अचल पर्वतों तथा समस्त पृथिवी तल में ज्ञानी, श्री (समुद्र) विजय राजा और शिवर्ण बहु (शिवादेवी) का पुत्र जो नेमिकुमार है"घत्ता--- जो बाईसवाँ चरमशरीरी जिनेन्द्र कहा गया है। (उसके सामने) तीन ज्ञानों से युक्त अन्य कोई नहीं दीखता। ।। 59।। (10) नारद पूर्व-विदेह जाते समय मार्ग में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी को देखते हैं वस्तु-छन्द— “परन्तु आज भी उनका निष्क्रमण कल्याणक और केवलज्ञान कल्याणक नहीं हुआ है। वे निश्चय ही अभी छद्मस्थावस्था में हैं। पूछने पर क्या कहेंगे? इस प्रकार ऋषि नारद अपने मन में विचारता हुआ एक क्षण ठहरा। पुन: उसे विवेक उत्पन्न हुआ कि जो पूर्व विदेह है, वहाँ समवशरण में स्थित श्री सीमन्धर-स्वामी (विराजमान) हैं-।। छ ।। (9) 45. अ. यह पूरी पंक्ति नहीं है।
SR No.090322
Book TitlePajjunnchariu
Original Sutra AuthorSinh Mahakavi
AuthorVidyavati Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages512
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy