________________
4.9.9]
पहाकड सिंह विरहउ पज्जुण्णचरित
[65
कय तुड़ि जि सवत्तिए समउँ भास हय दइवइ इह महो पुत्त हास तहिं अवसरे पुणु महमहणु चवइ कहिं अम्हहँ एहा वच्छ हवइ ।
सब्वत्थ गबेसिउ वच्छ अज्जु पर केणवि णियउ ण लद्भु खोज्जु । पत्ता- मुणि भाणु णिउणु मुणेवि सो सिसु मरई कि जीवइ।
कह 'संजोवण मिलइँ कि णिवसइ इह दीव.।। 581।
15
वत्थु-छंद--- ताम णारउ भणह महुमहण फुडु
रूवाए वि सूणि को-कोण गयउ महे भवण भित्तरु। उग्गवणु अत्थवणु तिम ससि-सूरहूँ जिम णिरंतर।। तित्थंकर-चक्कवइ कहिं हरि-हर-रावण-राम ।
जे पायउ फणि-णर-सुरहँ तिजग' विणिग्गय णाम || छ।। एत्थंतरे ता रूविणि चवद
एवहिं महो होसई कवण गइ । विणु पुत्तइँ किम संठवमि मणु सुहु णत्थि सरीरहो ताय खणु। मुणि पभण. म करि विसाए सुए मालइ-माला वेल्लहल-भुए।
सज्जण-मण-णायणाणंदणहो हउँ जामि गवेसइँ णंदणहो । अवसर पर मधुमथन ने कहा—"हमारी ऐसी अवस्था कैसे हुई? हमारा यह वत्स कहाँ होगा। हे आर्य, वत्स को सर्वत्र खोजा किन्तु खोज करते समय न तो उसे किसी ने कहीं देखा और न पाया।" घत्ता- ज्ञान निपुण तथा भानु के समान है मुनिराज, आम (अपने ज्ञान से) जानकर बताइए कि वह शिशु मर गया है या जीवित है। किस संयोग से वह मिलेगा? क्या वह इसी द्वीप में रह रहा है।। 58 ।।
(9) नारद आकाश-मार्ग से प्रद्युम्न की खोज में निकलते हैं वस्तु-छन्द—तब नारद ने कहा—“हे मधुमथन, हे रूपिणी, स्पष्ट सुनो। इस महान् । भुवन (लोक) के भीतर
कौन-कौन नहीं गया। उद्गमन और अस्तमन सभी का वैसा ही हुआ जैसे चन्द्र एवं सूर्य का उदय एवं अस्त निरन्तर होता रहता है। तीर्थंकर और चक्रवर्ती कहाँ तथा हरि-हर, रावण एवं राम कहाँ? जो साक्षात् ही फणी, नर एवं सुर थे, त्रिजग में उनका भी नाम कहीं निकला है (अर्थात्
वे इस संसार में रह सकेंगे)?" इसी बीच में वह रूपिणी (नारद का कथन सुनकर) बोली-"अब मेरी कौन गति होगी। बिना पुत्र के मैं अपने मन को कैसे ढाढस बंधाऊँ। हे तात् मेरे शरीर को क्षण भर भी सुख नहीं मिल रहा है।" तब मुनिराज ने कहा- "हे मालती की माला के समान सुन्दर सुकुमार भुजावाली हे सुते, विषाद मत करो। सज्जन जनों के मन को आनन्द देने वाले तेरे उस पुत्र की गवेषणा के लिये मैं जाता हूँ। "सुत के शोक से बिल्लाती विह्वल रूपिणी
(8) 5. ५ ह'। 6. अ बालु। (9) 1. अप। 2-3. 3. लग्गमि कुहेत।