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महाका सिंह विरइउ पजण्णधरित
[4.7.16
धत्ता- हा ताय-ताय पइँ आसि महु परिणयणु कराविउ ।
__ जइ चक्कवइहे दिण्ण कहि' सुउ केण हराविउ।। 57।।
वत्थु-छंद -- तो सुहद्दई अवरु देवइए पडिजंपिउ
रूविणि णि सुणि पुण्णहीण तुहुँ अज्जु जाणिय। परपुग्णहि अगलिय सच्चहाव जा पढम राणिय।। सो जि मुहुत्तु विवा'रु सो वि जणिय सुरणंदणपेच्छ।
तुह केरउ दइवें हरिउ सच्चवि पुणु अणहच्छ।। छ।। देवइ-सुहद्द दुव्वयणु देवि णिय णिलउ गयइँ दूसणु ठवेवि।। ता रूविणि सुप-संताव-तत्त पमणइ हउँ पुण्ण-पहाव-चत्त । पइसरमि जलंत. जलणे अज्जु घर-दावारेण ण किंपि कन्जु । तवचरणु घोरु किं चरमि ताय जं सासु णणंदहँ णिसुअ वाय । अवरु वि गरुवउ सं ताउ मज्झु मुणि णिसुणि पयत्तें कह वि तुज्झु ।
पत्ता --
"हा तात, हा तात् । आपने ही तो मेरा परिणयन (विवाह) कराया है। यदि चक्रवर्ती को पुत्र दिया है तो फिर उसका अपहरण किससे करा दिया है, (साफ-साफ कहो।")।। 57 ।।
सास एवं ननद की झिड़कियाँ सुनकर रूपिणी का दुख दुगुना हो गया वस्तु-छन्द- तब सुभद्रा (ननद) और देवकी (सास) ने कहा "हे रूपिणी सुनो, तू पुण्य-हीना है, ऐसा हमने आज
जाना, जब कि प्रथम रानी सत्यभामा पुण्य से अगलित है.-हीन नहीं है।" - "जब उस (तुम्हारे पुत्र-जन्म) के मुहूर्त पर विचार किया तो यह पाया कि वह सुरनन्दन-पक्ष में जन्मा है। इसीलिए तुम्हारा पुत्र तो दैव (दुर्भाग्य) से अपहृत हो गया जब कि सत्यभाभा का पुत्र अनाहत (अनपहृत या
अपीड़ित) है।। छ।। देवकी और सुभद्रा दोनों ही दुर्वचन देकर (लांछन लगाकर) अपने-अपने घर गईं। तब सुत-सन्ताप से सन्तप्त रूपिणी बोली—"मैं पुण्य-प्रभाव से त्यक्त हूँ। अब आज में जलती हुई अग्नि में प्रवेश करूँगी, अब मुझे घर के व्यापारों से क्या प्रयोजन? हे तात, क्या अब मैं घोर तपश्चरण करूँ, जिससे सास, ननद की बातें न सुननी पड़ें। (उनके ताने सुनकर तो) मुझे और भी घोर सन्ताप हो रहा है। हे मुनिराज, सावधानी पूर्वक सुनिए, मैं (केवल) आपसे (ही) निवेदन कर रही हूँ कि सपत्नी (सौत) ने कुछ त्रुटि की (टोटका अवश्य किया) है, ऐला मुझे भास रहा है । “हा-हा, दैव ने मेरे पुत्र का अपहरण कर मेरे साथ क्रूर हँसी (व्यंग्य) की है।" फिर उसी
17) (1) कथय।
(801-2. अ में नहीं है। 3. अ
न
। 4. अ. दुक्छु
।