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विनम्र निवेदन सन् 1972 के ग्रीष्मावकाश में सौभाग्य से मुझे राजस्थान, गुजरात एवं महाराष्ट्र में भ्रमण करने का सुअवसर मिला। वहाँ के अनेक दर्शनीय स्थलों में से कुछ प्राचीन ग्रन्थागारों को भी देखने का सुयोग प्रापा हुआ। आदिकालीन हिन्दी-साहित्य के अध्ययन-प्रसंगों में हिन्दी की जननी - अपभ्रंश के विषय में मुझे सामान्य जानकारी थी ही, और गुरुजनों ने बताया था कि राजस्थान एवं गुजरात के विभिन्न शास्त्र-भण्डारों में हिन्दी. अपभ्रंश. ग्राकृत एवं संस्कृत के सहसों हस्तलिखित अप्रकाशित ग्रन्थ भरे पड़े हैं, जिनके अध्ययन एवं प्रकाशन की महती आवश्यकता है। अत: दीर्घकाल से मैं उन ग्रन्थों को देखने के लिए अत्यन्त लालायित थी। उक्त प्रवास प्रसंग में मुझे विशेष रूप से आमेर शास्त्र-भण्डार, जयपुर, ऐ०पं० सरस्वती-भवन, ब्यावर तथा अजमेर, अहमदाबाद, जामनगर, पूना, बड़ौदा एवं दिल्ली के प्राच्य शास्त्र-भण्डार देखने का अवसर मिला । ब्यावर के शास्त्र-भण्डार में पहुँचते ही वहाँ पोथियों के अवलोकन के समय पज्जुण्णचरि' नामक प्रस्तुत अप्रकाशित ग्रन्थ ने मुझे अत्यधिक प्रभावित लिया और वहीं पर मैंने यह संकल्ला किया कि भले ही इसमें कुछ कठिनाइयाँ आयें. फिर भी इस ग्रन्थ का उद्धार मुझे करना ही है। यही विचार कर मैं उस ग्रन्थ को अपने साथ लेती आई और उसका एकरस होकर अध्ययन एवं मनन कर उसके प्रतिलिपि कार्य में संलग्न हो गयी। इसके प्रारम्भिक-आर्य में मुझे लगभग 3-4 वर्ष लग गये।
उस कार्यकाल में मैंने यह बार-बार अनुभव किया कि हस्तलिखित अप्रकाशित प्राचीन-लिपि का अध्ययन जितना कठिन है, उसका सम्पादन, हिन्दी-अनुवाद एवं समीक्षात्मक तथा तुलनात्मक अध्ययन उससे भी अधिक कठिन । यथार्थत: ये समस्त कार्य अत्यन्त धैर्य-साध्य, मष्ट-साध्य एवं व्यय-साध्य हैं। फिर भी. अपभ्रंश एवं हिन्दी के अनेक महारधी दिग्गज विद्वानों के महान् साहित्यिक-कार्यों का स्मरण तथा अवलोकन कर मैं गार्हस्थिक एवं अन्य शैक्षणिक-दायित्वबोधों की व्यस्तताओं के बीच भी धैर्यपूर्वक प्रस्तुत शोध-कार्य करती रही। अब नुझे इस बात की अत्यन्त प्रसन्नता है कि दीर्घावधि के परिश्रम के बाद में एक अद्यावधि अप्रकाशित एवं नष्ट -बाय सरस-कृति का उद्धार कर सकी। मेरी दृष्टि से शोध की दिशा में अप्रकाशित-साहित्य का सम्पादन-अनुवाद एवं विविध दृष्टिकोणों से उसका समीक्षात्मक अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण शोध-कार्य है और इस माध्यम से शोध-कार्यों गें अनावश्यक सुनरावृत्तियों से भी बचा जा सकेगा।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध तीन खण्डों में विभक्त किया गया है... (1) मूलपाठ, (2) हिन्दी-अनुवाद एवं (3) समीक्षात्मक-अध्ययन। मूलपाठ एवं हिन्दी-अनुवाद यथास्थान प्रस्तुत हैं। हिन्दी-अनुवाद में कवि की नूलभावना को सुरक्षित रखने का यथासाध्य प्रयत्न तो किया ही गया है, यह भी ध्यान रखा गया है कि वह शब्दानुगामी अनुवाद के साथ-साथ प्रवाहपूर्ण भी बना रहे। __ समीक्षात्मक-अध्ययन में उपलब्ध प्रतियों के परिचयों के अनन्तर काव्य-शास्त्रीय एवं सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। साहित्य-जगत् के लिए महाकवि सिंह अद्यावधि एक अपरिचित अथवा अज्ञातप्राय कवि ही रहे हैं। उनका अथग उनकी रचना का उल्लेख साहित्यिक इतिहास में नहीं मिलता, किन्तु इससे कवि अथवा इसकी कृति प्रभाहीन नहीं मानी जा सकती। उसके घेरे में पड़े रहने के अनेक कारण हो सकते हैं। मेरी दृष्टि से 13वीं सदी के बाद ही अगली 1-2 सदियों की राजनैतिक उथल-पुथल में सम्भवत: सुरक्षा की दृष्टि से