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महाकद सिंह विराउ पत्रुष्णचरिउ
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धय-मालालकरिउ कणय-कलस-पेसल रमाउले ।। ला पेछेवि भीसम-सुअ कल-पलाउ करंति ।
वाह पवाहहिं सयल महि सरि-सरवरइँ भरति।। छ।। ("त छेवि हरि विलुलिय-गत्तउ सुवहो विओय-सोय संतत्तउ । पुणु-पुणु संबोहिउ बलहदें
आयम-वयणहिं सुमहुरे-सहें अहो महुमहण सोउ णउ किज्जई सोयइँ सुहडत्तणु णासिज्जई। सोयइँ खयहो जाइ माहत्तमु तुम्हारिसु पुणु इह पुरिसोत्तमु । सोउ करंतु किण्ण किर लज्जइ संसारहो गइ मुणहि ण' अज्ज। अद्धव-असरण-जग गुरु-सिक्खउ कहिउ तासु वारहे अणुवेक्खउ । इम संवोहिउ महुमुह राणउँ पुत्त-विओय-सोय-विद्दाणउँ। पुणु सच्चहिं रूविणि संवोहिय बहु दिद्रुतहिं तो वि ण बो हिय ।
पुणरवि णरवइ मिलेवि असेसा गय रूविणि-णंदणहो गवेसा। घत्ता--- सरि-सुरगिरि पवरे आराम-गाम सुविसिट्ठउ ।
घर-पुरवर सयल जोयंतहिं वालु ण दिउ ।। 56।।
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-~-रूपिणी को करुण-प्रलाप करते हुए तथा अपने अश्रुओं के धारा-प्रवाहों से पृथिवी को तथा समस्त
नदियों एवं सरोवरों को भरते हुए देखा।। छ।। रूपिणी की शोकावस्था को देखकर वह हरि भी विलुलित-गात्र हो गया और शोक-सन्तप्त हो गया तब बलभद्र ने आगम के वचनों द्वारा सुमधुर शब्दों से उसे बार-बार सम्बोधित किया और कहा—“अहो मधुमथन, शोक मत कीजिए। शोक से सुभटपना का नाश हो जाता है, शोक से माहात्म्य (बड़प्पन) का क्षय हो जाता है।
फिर इस संसार में पदि तुम्हारे जैसा पुरुषोत्तम इस प्रकार शोक करे तो क्या लज्जा का विषय नहीं है? क्या संसार की गति को आज तक भी नहीं समझा? जगद्गुरु जिनेन्द्र ने अध्रुव, अशरण जैसी बारह अनुप्रेक्षाएँ एवं उनकी शिक्षाएँ बतलाई हैं। इस प्रकार बलभद्र ने पुत्र-वियोग के शोक से विद्ावित राजा मधुमथन को सम्बोधित किया। पुन: सत्यभामा ने भी अनेक दृष्टान्तों से रूपिणी को सम्बोधित किया तो भी वह चुप नहीं हुई। पुनरपि सभी राजा मिले और रूपिणी के नन्दन को खोजने गये। घत्ता- नदियों पर, प्रवर सुरगिरि पर, विशिष्ट आराम में, ग्राम में, सकल पुरवरों के घर गये। वहाँ देखते
हुए भी बालक को नहीं देखा ।। 56 1 1
(6) 1.अ. वि। 2. अ. ण। 1. ब. मो।
(6) (1) तां रुक्मिनी। (2) न अद्यादि।